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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


के द्वारा किये गये व्यवहार की अनुकूल अथवा प्रतिकूल आलोचना करते हैं जिससे इस विषय की उपयोगिता पूर्णतया सिद्ध होती है। यथार्थ में शिष्टाचार की उत्पत्ति सभ्य समाज में आवश्यकता और अनुकरण से आप ही आप होती है। हांँ, यह बात अवश्य है कि कोई सामाज कम और कोई अधिक शिष्टाचारी होता है; पर इससे इस विषय की कोई हीनता सूचित नहीं होती।

शिष्टाचार की प्रवृति आवश्यकता और अनुकरण के अतिरिक्त पुस्तकावलोकन‚ प्रवास और सामाजिक तथा सार्वजनिक जीवन से भी वृद्धि पाती है। स्वयं प्रशंसा पाने और दूसरों को उचित रीति से प्रसन्न करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति से भी शिष्टाचार के भावो की उन्नति होती है।


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