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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


तो किसी के दोष से सम्बन्ध रखने वाली सत्यता को अकारण ही प्रगट कर देने से मनुष्य पर अभियोग आरोपित कर दिया जाता है। शिष्टाचार ऐसी सत्यता को प्रकट होने से नहीं रोक सकता जो सब से अधिक लोगो को सब से अधिक लाभ पहुंँचाती है अर्थात् नीति और सदाचार की उच्चतम प्रेरणा से जो सत्य प्रगट किया जाता है वह शिष्टाचार की सीमा के बाहर है । इसी प्रकार सत्य की खोज में जो वादविवाद अथवा आन्दोलन होता है उसमे भी के सत्य की अवहेलना की जा सकती है। यदि शिष्टाचार के अनुरोध से इस प्रकार के अटल सत्य का प्रचार न हो तोक्षसत्य ज्ञान की उन्नति होना असम्भव हो जाय और लोगो को सदाचार और शिष्टाचार में अन्तर समझने को योग्यता ही न रहे ।

सारांश यह है कि शिष्टाचार में सब के प्रति कोई अनास्था नहीं दिखाई जाती और न जानबूझकर किसी को हानि पहुँचाने अथवा धोखा देने के लिए समयानुकूल असत्य का प्रयोग किया जाता है। उसमे सत्य को केवल कठोरता को कुछ कोमल कर देते हैं ।

( ६ ) शिष्टाचार के साधन

साधारणतया शिष्टाचार के प्रमुख साधन मन, वचन और कर्म है, पर, जैसा पहले कहा जा चुका है, उसके पालन में मन की विशेष प्रेरणा नहीं होती, यद्यपि उसमें मनुष्य के स्वभाव का प्रभाव अवश्य पड़ता है। शिटाचारी व्यक्ति को शान्त स्वभाव और विवेक को बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि इनके बिना वह उचित अथवा अनुचित कार्यों के विषय में ठीक ठीक विचार नहीं कर सकता। शिष्टाचार में विचार और कर्म के साथ कुछ हृदय के मेल की भी आवश्यकता है और इसके साथ उसमें बुद्धि और स्मरण का भी काम पड़ता है, इसलिए शिष्टाचार के साधनों में वचन और क्रिया के साथ कई अंशो में मन की भी आवश्यकता होती है।