पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/१७

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प्रथम अध्याय


में वे उसे वैसा न समझते हो, परन्तु उचित शिष्टाचार को प्राय सभी लोग सिद्धान्त और प्रयोग में अादर और गुण प्राहकता की द्वष्टि से देखते हैं। सारांश मे हम इस भेद को ऐसा भी मान सकते हैं कि उचित चापलूसो शिष्टाचार है, और अनुचित शिष्टाचार चापलूसी है। चापलूसी की आवश्यकता सदैव और सर्वत्र नहीं होती, पर मनुष्यों के परस्पर व्यवहार में शिराचार का काम पग पग पर पड़ता है। हम लोग चापलूसी का अवसर टाल भी दे सकते हैं, पर शिष्टाचार टाला नहीं जा सकता । कभी-कभी चापलूसी हृदय की एक ऐसी दूषित अवस्था से भी उत्पन्न होती है जिसमे सदैव स्वार्थ-साधन की विशेष लालसा नहीं रहती, किन्तु दूसरो को प्रसन्न करने की एक प्रकार की स्वाभाविक प्रवृति ही दिखाई देती है । इस प्रकार की चापलूसी सर्वथा निन्दनीय है, क्योकि यह दासता के उन भावो से उत्पन्न होती है जो पराधीनता के कारण किसी भी समाज के स्वभाव में सम्मिलित हो जाते हैं ।

( ४ ) शिष्टाचार और स्वाधीनता

बहुधा नवयुवकों के मन में स्वाधीनता की एक विचित्र ही कल्पना रहती है। वे समझते हैं कि मनमाना काम करना हो सच्ची स्वाधीनता है, चाहे उसमे दूसरों को अथवा स्वंय उन्हीं की कैसी ही हानि क्यों न हो। इस दृष्टि से वे शिष्टाचार को स्वाधीनता का वाधक समझते हैं, क्योकि उनके मतानुसार उसके अनुरोध से लोगों को कई काम केवल दूसरो के सुभीते के विचार से करने पड़ते हैं। अनेक तत्ववेत्ताओ ने स्वाधीनता का लक्षण बताने का प्रयत्न किया है, परन्तु उन्होने स्वेच्छाचार को स्वाधीनता कभी नहीं माना । यथार्थ में जब तक मनुष्य सामाजिक प्राणी है तब तक वह स्वेच्छाचार का पालन सदा और सर्वत्र नहीं कर सकता, क्योकि ऐसा करने में उसे पद् पद् पर स्वाभाविक तथा कृत्रिम