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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


पथ्य में सावधानी रखने के लिए अनुरोध करना अनुचित नहीं है। रोगी के पास जोर-जोर से बातें करना ठीक नहीं । वहाँ किसी ऐसे विषय पर भी बात-चीत न की जावे जो रोगी को अप्रिय जान पड़े। रोग के सम्बन्ध में बात चीत करते समय सच होने पर भी यह कभी न कहा जावे कि अमुक मनुष्य इस रोग से मर गया। रोगी के पास केवल उसी समय तक बैठना चाहिये जब तक उसके दवाई पीने का अथवा भोजन करने का समय न आवे ।

यदि कोई परिचित रोगी किसी सार्वजनिक औषधालय में हो तो वहाँ भी उसकी खबर पूछने के लिए जाना उचित है। यदि आवश्यक हो तो उसके लिए दवाई लाने अथवा वैद्य को बुला लाने में सहायता देना चाहिये । रोगी मनुष्य को उठने बैठने अथवा करवट बदलने में सहायता देना प्रशसनीय कार्य है। अशक्त रोगी को नीच से नीच सेवा भी उच्च शिष्टाचार का लक्षण है।

जहांँ तक हो परिचित रोगी के पास रोग की अवस्था में एक बार से अधिक जाना आवश्यक है जिससे यह कार्य निरा शिष्टाचार न समझा जावे । कोई-कोई लोग सहानुभूति की प्रेरणा से नहीं, किन्तु निरे शिष्टाचार के अनुरोध से किसी रोगी को देखने जाते हैं और एक बार जाकर ही अपने कर्तव्य की इति-श्री मान लेते हैं। इस प्रकार की उदासीनता शिष्टाचार और नीति दोनो के विरुद्ध है।

रोगी के पास जाकर ऐसे स्थान में न वैठना चाहिये कि जहाँ से हवा का आवागमन रुक जावे अथवा रोगी के कोठे में अँधेरा हो जावे । ऐसे स्थान में भी बैठना उचित नहीं, जहाँ रोगी सरलता से अपनी दृष्टि न डाल सके । कुशल पूछने के लिए जाने -वाले सज्जनो को सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनको किसी भी क्रिया अथवा व्यवहार से रोगी को कष्ट न पहुंचे।