विषय को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करना आवश्यक जान पड़ता
है। मान लीजिए कि यदि आप अपने मित्र के यहाँ किसी आवश्यक
कार्य के अनुरोध से ऐसे समय जा पहुँचें जब वह स्नानभोजन आदि
के विचार में हो, तो उस समय आपको उससे कष्ट के लिए क्षमा
मांगकर तुरन्त यह स्पष्ट कह देना चाहिये कि हम विवश होकर
आपको इस समय कष्ट दे रहे हैं। पश्चात् शीघ्र ही अपना काम
निपटाकर उसके पास से चले आना चाहिये। यदि आप स्वार्थ वश
कुछ अधिक समय तक वहाँ ठहरकर अपने मित्र के कार्य में अड़चन उत्पन्न करेंगे तो सम्भव है कि आपका मित्र संकोच को त्याग कर आपके जाने के लिए कुछ ऐसा संकेत कर देवे जिससे आपको खेद हो और आप दोनों के मनो में थोड़ा-बहुत बेमनस्य हो जाय। फिर यदि आपका मित्र अतिशिष्टाचार के अनुरोध से आपके आगमन को अपना अहोभाग्य प्रगट करे तो उस दशा में भी आपको बुरा लगेगा।
( २ ) शिष्टाचार और सदाचार
शिष्टाचार सदाचार का एक अंग है और एक से दूसरे का
अभ्यास तथा वृद्धि होती है । तथापि इन दोनो विषयों में बहुत-कुछ अन्तर है । सदाचार का धर्म से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है और उसको
अवहेलना करना पाप समझा जाता है, परन्तु शिष्टाचार का सम्बन्ध
बहुधा समाज अथवा व्यक्ति के सुभीते तथा सन्तोष से है और
उसकी अवज्ञा पाप के समान गर्हित नहीं मानी जाती, यद्यपि उससे दूसरे लोग सहज में अप्रसन्न हो सकते हैं । सदाचार सर्वत्र और सर्वदा अटल है, परन्तु शिष्टाचार में देश, काल और पात्र के अनु सार परिवर्त्तन हो सकता है । इसके अतिरिक्त सदाचार का अभ्यास एक कठिन कार्य है, पर शिष्टाचार के अभ्यास में विशेष कठिनाई नहीं है । सदाचार की अवहेलना से भयकर आत्मिक परिणाम उप-