पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/११५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०३
छठा अध्याय


यदि कोई दीन दुखी भिक्षा माँगने आय और वह दानका पात्र हो तो उसे अवश्य कुछ न कुछ भिक्षा में देना चाहिये । उसमे किसी प्रकार के कटु शब्द कहना या उसे धुतकारना बडप्पन के विपरीत है। महाजनो को भी उचित है कि वे दीन दुखियों को ऋण बटाने के लिए अनुचित कष्ट न देवें और उनका अपमान न करें।

यदि कोई मनुष्य किसी शारीरिक अवयव से हीन हो तो उसकी हँसी उड़ाना अथवा बिना कारण के उसकी उस अवयव-हीनता का उल्लेख करना असभ्यता है । अपाङ्ग मनुष्यों का तिरस्कार करना अथवा किसी अवयव की हीनता के कारण उनका वैसा नाम रखना अनुचित है। शरीर के अप्रिय अंग के कारण भी किसी का अपमान न किया जावे । धनाभाव के कारण जो लोग स्वच्छ वस्त्र नहीं पहिन सकते अथवा बाला को स्वच्छ नहीं रख सकते उनसे भी घृणा न की जावे । गरीब आदमियो के लड़के बच्चो की और भी घृणा भाव न दिखाया जावे । दरिद्रता ऐसा पाप नहीं है कि उसने कारण मनुष्य दूसरे लोगो के साथ न बैठ सके । घर पर आये हुए दीन मनुष्य को भी उसके अनुरूप आदर के साथ बिठाना चाहिये और उससे सहानुभूति पूर्ण बात-चीत करना चाहिये।

जो धनवान लोग किसी विषम सङ्कटम ग्रसित हो जाते हैं वे भी एक प्रकार के दीन मनुष्य हैं । उनके संकट ग्रस्त होने पर उन्हें किसी प्रकार का उपालम्भ देना अथवा उनसे संकट की ओर उदा-सीनता दिसाना उचित नहीं है । यदि किसी सच्चे मनुष्य ने हमारा कोई अपराध किया हो और यह सच्चे हदय से दीन होकर हमसे क्षमा की प्रार्थना करे तो हमे सहर्ष उसे क्षमा प्रदान करना चाहिए। यदि उसका व्यवहार आगे सतोष-दायक रहे तो हमे किसी भी समय उसके पूर्व अपराध की चर्चा न चलाना चाहिये। किसी दीन पर किये गये उपकार का भी कभी उल्लेख न किया जावे।