पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/७२६

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पीपासा करनेवालेफी आत्मामें जो सामध्ये विशेष उत्पन्न करता मनुष्यकृत नहीं है। अतपय यह उक्त दास रहित है- है यह सामर्थ्य विशेष याग, दानादिका फल है। इस! इस कारण वेदवाक्यका प्रमाण अक्षत है। फलविशेषके कारण फर्ता अनुष्ठाता) भविष्यत्में स्वर्गादि यहां पर देखना होगा, कि मनुष्यके किस प्रकार उपभोगका योग्य हो जन्मप्रइण करता है। प्रामाण्यज्ञान उत्पन्न होता है। यह प्रमाण है, वह ____ मीमांसादर्शनमें इम सामर्शको "अपूर्व" कहते । प्रमाण नहीं है, यह शान फ्या ज्ञानके स्वभावसे आप हैं दूसरे दूमरे शास्त्रों में इसे अदृष्ट, पुण्य और धर्म आप उन्नत होता है ? अधया यह कारणके गुणदोप पतलाया है । इस मतके अनुसार भी याग, दान और देखनेसे अथवा अर्थ किया ज्ञानके द्वारा अर्थात् शेयपदार्थ. होमादि नामक किया-कलाप धर्म है। यह द्रव्य, गुण को कार्यकारिता देखनेसे उत्पन्न होता है । अथवा और क्रियाका शिल्पविशेष है । अतएव धर्म का ज्ञानके स्वभावसे पहले प्रामाण्य-ज्ञान उत्पन्न होता है प्रथमरूप प्रत्यक्ष है किन्तु इसका अपूर्व नामक व्यापार और पीछे शेयका अन्यथाभाय और कारणका दोष या शक्ति अनुमेय है। . . शानगम्य हो कर उसे दूर करता है। यह भी देखा जाता यूसरोंको विवेचनासे याग, दान होमादि किया है, कि जहां शयका तधात्व है, वाधक ज्ञानका अनुदय थलसे उत्पन्न अपूर्व नामक सामर्थ्य ही 'स्वर्गादि फल | और कारणदोपका अनवधारण है, यहीं पर प्रामाण्य देनेवाला है। यह अपूर्व सामर्थ्य हो धर्म है। तय ; वोधका स्थायित्य देखा जाता है। इस विषयमें किसी लोग या शास्त्र जो यागादि कर्माको धर्म कहते हैं ऐसा किसो भोमांसकका सिद्धान्त इस प्रकार है-कारणको उपचार क्रमस हो कहा करते हैं । आयु बढ़ानेवाले घोको कार्यशक्ति स्वाभाविक है, इसीलिये ज्ञान भी अपने खमाय भायु पहना वैसा ही है जैसा धर्मा देनेवाली क्रियाको और सामर्थ्यसे प्रामाण्य इन दोनोंको अवधारण फरता धर्म याहना । इस मतरी धर्मा जनसाधारणके अनुभवसे है। इसमे दुसरेका विचार इस प्रकार है-ज्ञानपदार्थ गायका विषय है। योगो एक समय अपनी अवगाद्य वस्तुके तथास्य और अ. in यो मन्ति वलसे धर्माधर्म जान ! तथात्यको समझने वा ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि, तथात्य और अतथात्व ये दोनों ही भाव परस्पर ____ कोई कोई कहते हैं, कि क्रिया जनित अपूर्व शक्ति | विरोधी हैं, इस कारण एक समयमें और एक शानमें उक्त हो धर्म है। यह यात सत्य है, लेकिन यह ऋषि-ज्ञानके दोनों ज्ञान अवस्थान नहीं कर सकते। अतः यह दृष्टिगत है। इस सम्बन्धमें मोमांसफ लोग फहते स्वीकार करना होगा, फि कारणके गुणदोपके शान द्वारा हैं, कि धम्म और अधर्म कायिक, वानिक हो प्रामाण्यादिका अवधारण हुआ करता है। इस पर और मानसिक हैं। ये फियासे उत्पन्न होते हे नधा ये कोई कोई मीमांसक कहते हैं, कि जब तक कारणका गुण हो भविष्यत मुख-दुःखके वीज होते हैं। धर्म उन फलों | दोप मालूम न हो जाय तब तक यदि उससे उत्पन्न याफ्यादि प्रमाण है वा अप्रमाण यह स्थिरन हो तो का जन्मान्तरभावी है । अर्थात् यह फलभोग दूसरे जन्म में होता है। इसलिये यह लौकिक अनुभयसे बाहर है । ज्ञानको निस्वभाव वा निःशक्ति स्वीकार करना पड़ेगा। किन्तु इसे ये लोग स्वीकार नहीं करते। अतएव यह किन्तु पदिक चापोंसे इसका ज्ञान होता है। मामाययवाद। • कहना उचित है, कि पहले अप्रामाण्य भीर पीछे संवाद शान उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य रहनेके कारण घाफ्य शानादि द्वारा उसका अपनोदन और प्रामाण्य, ज्ञानका 'हो प्रमाण है। यह स्वतन्त्र और स्वतःप्रमाण है। यों तो उद्भय हुआ करता है। थोड़ा गौर कर देखनेसे मालूम होगा, कि ज्ञान उत्पन्न होते ही यह शेयका तथात्व अयथार्थ याफ्य भी बुद्धि उत्पन्न करता है, पर उस बुद्धिमें | अवधारण नहीं कराता। जब कारणका गुण और 'कारणयोप और बाधकशान रहने के कारण उमे प्रमाण अर्थका तथात्य प्रतीत होता है, तमी प्रमाणाजनित नहीं कह सकते। फिर भी, वेदवाक्य अपौरुषेय अर्थात् / हानसे प्रामाण्य का उदय होता है। . . .