पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५३७

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पागढ-माण्ड मिश्र ४७७ कहा था। इसलिये तुम्हारे इस पुवका नाम मार्तण्ड। मनु था। ये भी वैवस्वत मनुकी तरह प्रभावशाली थे। होगा। यह पुत्र संसारमें सूर्यका कार्य और यज्ञभाग- दुसरे पुवका नाम शनैश्चर और कन्याशश नाम तपती हारी असुरोंका संहार करेगा।' था। राजा सम्बरणके साथ तापती ध्याही गई थीं। देवताओंको जब यह संवाद मालूम हुभा तर ये इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। पोछे जव मातएड प्रसन्न हुए और मार्तण्डको अगुआ बना कर असुरोंक को यह रहस्य मालूम हो गया तब वे संशा पर बड़े साथ युद्ध करने लगे। इस युद्ध में सभी असुर भगवान् । विगड़े और उसी समय विश्वकर्माक समीप चले गये। मार्तण्ड द्वारा देखे जाते ही उनके तेजसे भस्म हो । विश्वकर्माने यथाविधि सत्कार कर कहा, 'संक्षा तुम्हारे गये। प्रखर तेजको सहन सकनेके कारण कठोर तपस्या कर .. इस प्रकार असुरों के मारे जाने पर देवनाओंने फिर रही है। संज्ञा तुम्हारी कमनीय मामिलापो है। यदि अपना नष्ट अधिकार प्राप्त किया। मार्तण्डदेव कदम्बपुष्पकी तुम्हें उसे पानेको इच्छा हो, तो अपने इस प्रखर तेजको तरह ऊपर और नीचे अपनी प्रखर किरण फैलाने लगे।। घटा दो ।' . उन्होंने देखते देखते प्रज्वलित अग्निपिण्डकी तरह अनि सूर्यदेव स्वीकार करने पर विश्वकर्मा शाकद्वीपमें प्रदीप्त कलेवरको धारण किया।

मार्सएडको भूमियन्त्रमें आरोपित फर उनके तेजको

___ प्रजापति विश्वकर्माको कन्या संशाके माध इनका घटाने लगे। इस प्रकार उनका तेज विलकुल शान्त होर - विवाह हुआ। संज्ञाके गर्भसे दो पुत्र और एक कन्या । गया और शरीर बड़ा कमनोय दिखाई देने लगा। उत्पन्न हुई। ज्येष्ठ पुत्रका नाम वैवस्वत मनु, दूमरेका उनका तेज १५ भागों में विभक्त किया गया था। प्रत्येक यम और कन्याका नाम यमी या यमुना था। भागमे विश्वकर्माने विष्णुका चक्र, महादेवका शूल, संज्ञा मार्तण्डदेवके उस गोलाकार रूपसे उत्पनखर फुयेरकी शिविका (पालको ), यमका दण्ड और कात्ति तेजको किसी तरह सह न सकी और अपनी छायाको केयको शक्ति यनाई। (मार्कण्डेयपु० १०५-१० अ० ) ___संशा और सर्य देखो। देख कर कहने लगी. 'छाया! तुम्हारा कल्याण हो । मैं मार्शण्ड-काश्मीर के अन्तर्गत काश्मीरको प्राचीन राज- अपने पिताके घर जाती है, तुम मेरे कपनानुसार सूर्यके | साथ रहना। मेरे दो पुत्र और एक कन्या हैं उनका धानी इस्लामावादसे ५ मोल पूर्णम अवस्थित एक प्राचीन पुण्यस्थान। यहाँका मन्दिर अगद्विख्यात है। भी भलीभांति लालन पालन करना। किन्तु यह वात ! ऐसा सुन्दर मन्दिर भारतवर्नमें और कहीं भी नहीं है। सूर्यके समीप कभी भी न खोलना।' इसका शिल्पनैपुण्य देख कर यहां जितने गिल्पशास्त्र. छायाने कहा, 'मातएडदेव जब तक मेरे केश न पकड़ेंगे और मुझे शाप न देंगे, तब तक मैं तुम्हारे कथनानुभार चित् आये, समो मुक्त कण्ठसे इसको प्रशंसा नया प्राच्य-जगत्को अपूर्ण अतीत कौतियों में इसे श्रेष्ट ही चालूगो। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जा सकती हो।' स्थान दे गये हैं। मूलमन्दिर किस समय बनाया गया पद छायाके इस प्रकार कहने पर संशा पितृभवनको ) भी किसीको मालूम नहीं है। राजतरशिणोके प्रमा- चली गई और कुछ दिन यहीं ठहरीं। अनन्तर पितास णानुसार बहुतेरे इसे काश्मीर पति रणदित्यको कीर्सि स्वामीके पास जानेके लिये चार वार अनुरोध की, जाने । कहते हैं। फिर कोई कोई भारतविजयी ललितादित्य- पर वह घड़यारूप धारण कर उत्तर-गुरुको बल दो भोर । घहों तपस्या करने लगीं। को इस मन्दिरका निर्माता बतलाते हैं। ___मातान शब्दमें विस्तृत विवरण देखो। घर संझा पितगृह जाने पर छाया उनका रूपमार्तण्डतिलकस्वामी ( स०)प्रसिस दार्शनिक यार. • धारण करके सूर्यदेवकी परिचर्या करने लगी । मार्शएड. स्पति मिश्रके गुरु। इन्होंने ब्रह्मसूत्रमाय प्रणनय किये। ने उसे संशा जान फर उसके गर्भसे दो पुत्र और एक मार्तण्ड भिय-प्रापश्चित्तमाएह और संस्कार ' कन्याको उत्पन्न किया। इनमें से बड़े का नाम साणि । के रचयिता। Voi, xvl1, 120