यासुत-पार ४४ रामचन्द्रने कहा था, पैसा हो फिया। इसी माया । मायूरक (सं० पु० ) वह जो जंगली मोरोंको पकड़ता हो। सीताको रावण हर ले गया था। लक्ष्मण मायासीता. मायूरकर्ण (सं०पु०) मयूरकर्णका गोतापत्य । 'के विषय में कुछ भी नहीं जानते थे। मायूरकल्प (सं० पु०) कल्पमेद । ' (अध्यात्मरामायण अरपय ७८ म० ) सीता देखो। । मायूरा (सं० स्त्री०) काकोदुम्यरिका, कठूमर । यासुन (सं० पु०) मायायाः मायादेव्याः सु । माया- मायूरादिपक्षव्यजन ( सं० पी० ) मायूरादिपक्षस्य देवोके पुत्र, बुद्ध। ध्यजनं। मयरके पंज, वस्त्र और येत आदिका धना गयास्त्र (सपु०) एक प्रकारका कल्पित अन । इसके पंखा। यह पंखा त्रिदोपजनक माना गया है। . विषयमें यह प्रसिद्ध है,कि इसका प्रयोग विश्वामित्रने मायूराज (सं० पु०) मायुराज, कुवेरफे एक पुत्रका श्रीरामचन्द्रजीको सिखाया था। नाम) गयिक ( स० क्ली०) माया मोहन-गुणः विद्यतेऽस्मिन् । मायूरिक (सं० पु० ) मयूर पकड़ कर येचनेवाला । माया ( ब्रीह्यादिभ्यश्च । पा ५२२२११६) इति ठन्। माया-मायूरी ( सं० स्त्री० ) अजमोदा। फल, माजूफल । (पु०)२ मायाकार, ऐन्द्रजालिक, मायूस (फा० वि०) निराश, ना-उम्मेद । जादूगर । | मायूसी (फा० स्रो०) निराशा, ना-उम्मेदी। "यन्मायो मोहितभाहं सदा सर्वे परात्मनः। । मायेय (सं० त्रि०) माया-जात, मायासे उत्पन्न । परवान दारुपाचाली मायिकस्य यथा पशे ॥" . मायोभव (सं० क्ली० ) १ शुभ, अच्छा। २ सौभाग्य । (देवीभागवत HRENIमार (स' पु०) मृ-भावे घम् । १मृति, मरण । नियन्ते .. (त्रि. ) मायाविशिए, मायासे बना हुआ, जाली।। प्राणिनीऽनेन मृ-घम् । २ कामदेव। । मायी (स.पु० १ मायाका अधिष्ठाता, ईश्वर । २ "अनुममार न मार कर्य नु सा इति रतिरतिथिदापि पतिमता । माया करनेवाला व्यक्ति । ३ जादूगर । (स्त्री०) ४ | विरहिणीशतघातनपातकी दयितयापि तयासि किमुज्मितः॥" हिलमोचिका (नेपघ०४७) मायो (हिं० स्त्री० ) माई देखो। ३ विघ्न। ४ मारण, मारनेको क्रिया या भाव। ५ मायु (स.पु०) मिनोति प्रक्षिपति देह उप्माणमिति घुस्तूप धतूरा। ६ यिप, जहर । ७ यौद्धशास्त्रोक्त उप- मिम् प्रक्षेपणे (फयापाजिमिस्पदिसाध्यशूभ्य उण । ११) देवताभेद। बुद्धदेव जब वोधिवृक्षके नीचे योगमग्न थे, इति उण ( मीनाति दीटा जपि च । पा ६।१५०) इति उस समय मार अनुचरीके साथ उन्हें छलने भाया था। मात्वं ततो युक्। पित्त । २ शब्द | ३ वाफ्य, वचन । किन्तु घुद्धके प्रभावसे उसकी एक मी चाल न चली। मायुक (सं० नि० ) शब्दकारी, शम्द करनेवाला । बुद्ध देखो। ८ गणभेद । कालिकापुराणमें लिखा है,- मायुराज ( स० पु१ कुवेरके एक पुतका नाम | २ एक | ग्रहाने महादेवको मोहित करनेके लिये कामदेवसे कवि। कहा। काम भारी ऊहापोहमें पड़ गये कि वे महादेवको मायूक ( स० लि०) शब्दकारी, शद करनेवाला। भुला सकेंगे या नहीं। इस प्रकार चिन्ता करते करते उन्हे मायूर (सं० क्लो०) मयूराणां समूहः, मयूर (प्राणिरजता- निःश्वास घायु चलने लगी। पोछे नानारूपधारी महापरा- दिभ्योऽम् ।' ३३९५४ ) इत्यम् । १ मयूर, मोर । कमी भीपणाकृति चञ्चल स्वभावके गण उनकी नियास २ मयूर नीयमान रथ, यह रथ जो मयूरोसे चलता हो। घायुसे उत्पन्न हुए। इन गोंमें कोई तुरङ्गानन, कोई मयूराणामिद इति-मण । (लि०) २ मदरसम्यन्धी, गजानन, सिंहानन, कोई वराह, गर्दभ, 'भल्लूक, विडाल मोरका। आदि जन्तुके जैसा था। अतिदीर्घाकृति, अतिसारति, "माम्य गव्य तथा मार्स मायूरचैव पर्जयेत् ।" प्रतिस्थूल, अतिरश, पिङ्गललोचन, विनयन, पंकनयन, . .., . ( भारत १३३१०४।६.) लिकर्ण, चतुष्कर्ण, स्थूलकर्ण, गद्दाकर्ण, विस्तृतकर्ण 1ol. XVII. 113
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