पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५०२

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मायावाद नहीं तुम्हारा ज्ञान (चैतन्य ) उस समय अज्ञानके सिवा सागर होता है, वैसे ही जीवगत नाना प्रकारके अज्ञान- अन्य विपयका अवगाहन नहीं करता था । यही उसका के समष्टिभावमें वह एक है । फिसोका भी वह सृष्ट नहीं, .. अर्थ है । अतएव अशान अभाव या शून्य रूपी नहीं है। इस तरहका सत्व, रज और तमोगुणात्मक अशान है। वह भाव पदार्थ और भाव पदार्थसे पृथक है। वह यह समष्टि अज्ञान उत्कृष्टका अर्थात् अप्रतिहत स्वभाव: यत्किंचित् अर्थात् एक प्रकार तुच्छ अस्थिका पदार्थ है। परिपूर्ण चैतन्य या ईश्वरको उपाधि होनेसे विशुद्ध सत्व- - ___ अशान कहनेसे लोग अभाव पदार्थ समझ लेते हैं।। प्रधान है। जो निकट रह कर अपना गुण समीपको . इस भयसे “भावरूप” विशेषण दिया गया है। निर्धाः वस्तुमें आरोपित करता है, वह उपाधि है। जूहीका पुष्प रित रूपसे उसका स्वरूप निर्णय किया जा नहीं सकता, स्फटिकके निकट रह कर अपना: लौहित्य स्फटिकको इससे "सद्सदभ्याम निर्वचनीय" कहा गया है। प्रदान करता है। इससे जूहीका पुष्प स्फटिककी उपाधि मिथ्याशान नामक भात्मगुण नहीं है इससे “त्रिगुणा है। अशान भी चैतन्यके निकट रह कर अपना दोप... त्मक” कहा गया है। ज्ञानके साथ विरोध रहनेसे , गुण चैतन्यमें आरोपित करता है। इससे वह चैतन्यकी अर्थात् ज्ञान रहनेसे अज्ञान भाग जाता है। इससे उस उपाधि है। जो जिसकी उपाधि है, यह उसका उपहित को "ज्ञानविरोधो" कहा गया है। अज्ञान पदार्थको भाव है। चैतन्यकी उपाधि अशान है, इसीलिये चैतन्य ज्ञान कह कर व्याख्या करनेसे भी ब्रह्म पदार्थकी तरह पार | का उपहित है। . . . . . . । मार्थिक भाव नहीं है। यह समझानेके लिये "यकिञ्चित्" उत्कृष्ट और विशुद्ध प्रधान इन दो शब्दों द्वारा इसी यह विशेषण दिया गया है । यत्किञ्चत् अर्थात् एक तरह तरहका भावार्थ मिलता है, कि सृष्टिके समय मूलप्रकृति- का अस्थिर या अनिर्वाच्य तुच्छ पदार्थ हैं। इस तरहका | के सिवा मन, बुद्धि आदि अन्य कोई उपाधि नहीं थी। जो अज्ञान है, वह अनुभवसिद्ध है। सभी लोग! इसलिये यह उत्कृष्ट है । सत्य, रजः और तमः ये तीन "अहं अशः" मैं अज्ञ अर्थात् मैं नहीं जानता, मैं कौन गुण जय समान रहते हैं, तब सृष्टि नहीं होतो। जय । हूँ, यह मैं नहीं जानता यह क्या है ? वह क्या है ? यह किसी एक की वृद्धि हो जातो. है, तव सृष्टि होती है । मैं नहीं जानता इत्यादि वाफ्य कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य- , सृष्टिके पहले ही प्रकृतिको या अज्ञानका सर्व प्रकाशक का ऐसा ही अनुभव प्रत्येक मनुष्यमें अज्ञान सदभाव- सर्वमर्यादाकारक, सर्वघोजस्वरूप सुखमय और प्रकाशक का प्रमाण है। अज्ञान जो अनिर्वचनीय पदार्थ है, यह सत्य प्रवृद्ध हो कर महतत्त्वको प्रसव करता है। क्रमशः भी उत्तम रूपसे अनुभव द्वारा प्रमाणित हो सकता है। उससे अहंकार आदिकी सृष्टि होती है। अतएव समेष्टि अज्ञान क्या है ? यह निद्धारित रूपसे मालूम न रहनेके | अज्ञानमें और महतत्वमें सत्वगुण प्रवल रहता है, रजः कारण हम मोहमें अभिभूत रहते हैं। अतएव अज्ञान और तमोगुण विलुप्तप्राय या अभिभूतप्राय रहता है। एक प्रकारका अनिर्वचनीय यत्किञ्चत् पदार्थ है, यह इसीसे उसको विशुद्ध सत्व कहा जाता है। . . अनुभव और शास्त्र दोनों प्रमाणसिद्ध है । इस विषय- . . समष्टि अशानमें उपहित. चैतन्य सर्वक्ष, सर्वेश्वर, . में शास्त्रका मत है, कि स्वयं प्रकाश आत्माका शक्तिरूप | सर्व नियन्ता, भव्यक्त, अन्तर्यामी, जगत्कारण आदि अशान अपने गुणोंसे गुप्त है। . . . . . नाम द्वारा अभिहित होते हैं । ऐसी समष्टि अज्ञानकी । न अन्ततः नाना रूपसे प्रकाशित - होने पर भी यास्तवमें एक है । इसलिये शास्त्रमें उस * "इदमशान' समष्टिव्यष्ट यभिप्रायेण कमनेकमिति च व्यव- को समष्टि (समुदाय वा अपृथक् भाव) लक्ष्य कर एक ] हियते, तथा हि, यथा वृक्षाणां समष्ट यभिप्रायेण वनमित्येकत्वब्य- और व्यष्टि (विभिन्न भिन्न भाव या विशेष विशेष| पदेशः यथा वा जमाना समष्ट यभिप्रायेण जलाशय इति तथा अवस्था ) लक्ष्य कर बहुत कह कर उल्लिखित है। जैसे नानात्वेन प्रतिभासमान. जीवगताज्ञानानां समष्ट यभिप्रायेण सदे- विशेष वृक्षके समष्टिभावमें एक वन और जलके समष्टिभावमें , कत्यव्यपदेशः । भजामेकामित्यादिश्रुते" ( वेदान्तसार)