पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/४६७

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मानवाय-मानस ४०१ मानवाद्य (सं० क्ली० , सामभेद। ५॥४॥३८) इति स्वार्थे अण् । १ मन, हृदय । विशेष विव- मानवोत्र (सं० पु०) प्राचीन कालका एक प्रकारका अस्त्र। रण मनस् शब्दमें देखो। मानवी (सं० सी०) मानव स्त्रीत्वात् डीप । १ मनुष्य । मनसा सङ्कल्पेन कृतमित्यण। २ सरोवरविशेष, मान स्त्री, औरत। पर्याय-मानुष्यो, मानुषी, नारी। सरोवर। "दिवौकसं कामयते न मानवी नवीनमश्रावि साननादिद।" "कैलासपते राम मनमा निर्मितं परम् । (नैषध ६४२) - ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सरः ॥" २ शासन-देवताविशेष | ३ पुराणानुसार स्थाय- (रामा० १।२४) - म्भुव मनुकी कन्याका नाम । (त्रि०) ४ मानव-सम्बन्धी, कैलास पर्वत पर ब्रह्माने अपनी इच्छामात्रसे जिस मनुष्यका। । सरोवरका निर्माण किया था, उसीका नाम मानससरो. मानवीय ( स० वि० ) १ मनुसम्यन्धीय, मनुष्यका। पर है। मानसरोवर देखो। (क्ली०)२ दण्डभेद ।। (पु०) ३ नागविशेप, एक नागका नाम | ४ शाल्मली मानवेन्द्र (सपु०) मानवानां इन्द्रः। राजा। । द्वीपके एक वर्षका नाम । (मत्स्यपु० ५३।२७) ५ पुष्कर मानवेय (स' पु०) मनुका गोलापत्य । । द्वीपके एक पर्वतका नाम। ६ संकल्प-विकल्प। ७ मानवेश (सपु०) राजा। सह्याद्रिवर्णित एक राजा। ८ मनुष्य, आदमी। (नि०) मानवौध (सं० पु०) मानवानां ओघः यस्मिन् । ताराविद्या- ! मनसि भवः जातो वा मनस् अण। ६ मनसे उत्पन्न, पीठके उत्तर वायुसे ईशानकोण तक पूज्य गुरु-पङ्क्ति ! मनोभाव । विशेष। तन्त्रके मतमें तारादेवीके पूजनमें मानवौध' मानस फल- पूजनीय है। भानुमत्यम्या, जयाम्या, विद्याम्या, महो.' विषयेश्यति संरागो मनसो मत उच्यते ।" दर्यम्या, सुखानन्दनाथ, परानन्दनाथ, पारिजातानन्दनाश, , (एकादशीतत्त्व) कुलेश्वरानन्दनाथ, विरूपाक्षानन्दनाथ तथा फेरय्यम्या ये मन जय बहुत श्षियासक्त हो जाता है, तब उसे सब देवता तारादेवीको गुरुपडिक्त हैं। इन्हें मान- मानसमल कहते हैं। मनमें जो कुछ होता है, उसीका वाघ कहते हैं । मानवानां ओघः । २ मानवसमूह, जमा- ' नाम मानस है । मनके विषयको ओर आसक्त होनेसे । चित्त मलिन हो जाता है। इसीसे उसे मानस-मल कहते मानवोत्तर (स० क्ली० ) सामभेद । । हैं। मुमुक्षु व्यक्निको मानस मलका परिहार करना मानव्य (सं० ली०) मानवानां समूह इति (ब्राह्मणमाणव- : उचित है। माड़वाद् यन्। पा ४।२।४२ ) इति यन् । १ मानवसमूह, मानस ताप- जमावडापाणिनिके उक्त सूत्रसेमद्धन्य मध्यमानय शब्द "कामक्रोधभयोषलोभमोह विषादजः। के उत्तर यन् होता है, किन्तु किसी किसोके मतमे दन्त्य : शोकायुयाजमानेा-मात्सर्यादिभयन्तथा । 'न' मध्य मानव शब्दके उत्तर यन हो कर यहां मानव्य पद मानसोऽपि द्विजट तापो भवति नैकधा ॥" हुआ है। मनोगावापत्य (गोत्रादिभ्यो यम्। पा ४११११०५) (विष्णुपु० ६५) इति मनु-पन् । (त्रि. )२ मनुका गोलापत्य, मनु काम, क्रोध, भय, देप, लोभ, मोह, विपाद, शोक, वंशीय। । असूया, अपमान, इर्षा और मात्सर्य आदि मानस ताप मानध्यायनी (सरली० ) १ बालकसमूह। २ युवक- है। 'मनोग्राह्य मुखं दुखं' मुख या दुःख दोनों ही मनो समिति। ! पाहा है यर्थात् मनमें हो इन सबका अनुभव होता है। मानाशिल (स० त्रि०) मानःशिला-सम्बन्धीय। । कामक्रोधादि द्वारा मन दुखको उत्पत्ति होती है, इसो- मानस (सं० लो०) मन पय मनस् ( प्रनादिभ्यश्च । पा) से इन्हें मानस ताप फहते हैं। सासग्दर्शनमें लिखा है, ___Vol. III, 103