पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/३९१

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पाणिकगाङ्गुली-माणिकचन्द्र ३४६ ४८६.वर्ग मोल और जनसंख्या पांच लाणके फरीय है। कुछ हो, उन्होंने अति शीघ्र हरिश्चन्द्र राजाको कन्या इसमें माणिकगज नामक एक शहर और १४६१ प्राम। उदुना पुदुनाके साथ पुत्रका विवाह कर दिया। लगते हैं। । देखते देखते १८यां वर्ष आ पहुंचा । मैना स्थिर

२ उक्त विभागका प्रधान नगर और विचारसदर । न रह सको। वे जानती थो, कि पुवके संन्यासग्रहणके

यह अक्षा० २३५२४५“उ० तथा देशा० ६० पू०के सिवा रक्षाका और कोई उपाय नहीं है। इस कारण मध्य पलेश्वर नदीके पश्चिमी किनारे अवस्थित है। प्रति उन्होंने पुत्रको बुला कर कहा, 'वत्स! यह जगत् माया- वर्प यहां एक हाट लगती है। का खेल है, सभी क्षणिक हैं, जो आज है. वह फल नहीं माणिकगाइगुली -धममङ्गलके प्रणेता एक बङ्गकयि। । है। अतएव यदि चिर शान्ति चाहते हो तो इसी समय माणिकचन्द्र--उत्तरपङ्गाके एक धर्मशील प्रसिद्ध राजा। रङ्ग मंन्यास प्रहण करो। राजधानीको पशुशालामें हाडिपा पुर और दिनाजपुर अञ्चलमें इनके तथा इनके पुत्र गोपी सिद्ध रहते हैं उन्हींका चेला बनो। पहले तो राजा चन्द्रफे स्वार्थत्यागका गान आज भी दोन दुःखीके मुखसे, गोविन्दचन्द्रने सुख ऐश्वर्या का परित्याग कर योगी होना सुना जाता है। .. नहीं चाहा, किन्तु पीछे माताके उत्साह और उपदेशसे

माणिकचन्द्रके गानसे हो मालूम होता है, कि माणिक

मुग्ध हो उन्होंने हाड़ोसिद्धकी गरण ली। मसार परि- चन्द्र एक बड़े धार्मिक राजा थे । प्रजाके ऊपर उन. त्यागके समय गजा गोविंदचन्द्रकी रानियोंने जो विलाप का किसी प्रकार अत्याचार नहीं था। मालगुजारी किया था. यह मर्मस्पी है। संसारत्यागके कालमें निहायत कम थी। प्रति गृहस्थसे हल पोछे डेढ़ पेसा उन्होंने कनफटे योगियोंकी तरह कान फड़वा यह कुण्डल लिया जाता था। जव नया सचिव नियुक्त हुथा तब पहन लिया था। उसने मालगुजारी बढ़ा दो : किन्तु प्रजा बढ़ाई गई। गोविन्दचन्द्र के गीतमें लिखा है, कि पहले हाडिपोने मालगुजारी देनेको विलकुल राजी न हुई । सवोंने विद्रोह शिष्यको परीक्षा लेनेके लिये उन्हें भिक्षार्थ भेजा। किंतु 'खड़ा कर दिया, यहां तक कि प्रधानके परामर्शसे वे समी मिक्षाके लिये वाहर निकलनेसे पहले हादिपा एक दैवज्ञ. 'राजाका काम तमाम करनेको तुल गये। के घेशमें प्रति प्राममें जा गृहस्थसे कह आये थे, कि “भाज . माणिकचन्द्रको स्त्रो मैनावती सिद्धा थीं। गोरक्ष- एक नवीन संन्यासी मिक्षाके लिये आयेगा, जो उसे भिक्षा 'नाथके निकट उन्होंने योगज्ञान सीखा था। ध्यान में उन्हें दंगा उसका धन उड़ जायगा। अत एव सर्वोको उचित पतिको विपद्का हाल मालूम हो गया। अब यह पतिको है, कि अपने अपने दरवाजे सामने कांटा गाड रखे। • रक्षाके लिये यथासाध्य चेष्टा करने लगो, किन्तु धर्म- इससे वह नवीन मन्यामी दरवाजे पर नढ़ने नहीं राजके हाथ से रक्षा न कर सकी। पतिके मरने पर उनके पायेगा।" मंभी गृहस्थोंने वैसा हो किया। गोविन्दवंद्र हृदयमें प्रतिहिसानल धधक.उठा। उनका जीवन उनके गांव गांव घूमा, पर भिक्षा कहीं नहीं मिली। इस पर लिये योझसा मालूम पड़ने लगा। इस समय रानोके , हाडिपाने कहा, "जहां घूमने पर भी भीख नहीं मिलती, सात मासका गर्भ था 1. गोरक्षनाथके बरसे अंठारह वहां रहना उचित नहीं। अतः हाड़िपा गोविन्दचन्द्रको मासमें उनके एक परम सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। ले कर दक्षिणकी ओर चल दिये। यहां हाड़िपाने होरा- गोपीचन्द्र वा गोविन्दचन्द्र, उसका नाम रखा गया । मैना र दारो'नामक एक वेश्याके यहां गोविन्दका बंधक रखा। जानती थी, कि उनके प्रियपुत्र का जीवनकाल सिर्फ . अठारह वर्ण है। गोपीचन्द्र के एक और छोटा भाई था * यह हाड़ीसिद्ध जालन्धर सिद्ध नामसे वौद्धग्रन्थमें प्रसिद्ध जिमका नाम खेतुभा लटूश्वर था। हैं। तिअतीय बौद्धग्रंथमें भी हाड़िया नाम आया है । व ,.. अकालमें पति वियोग और फिर. १८ वर्ष पुवा, गोरक्षनाथके शिष्य थे । हिन्दमात्र उन्हें हठयोगी कहा उपयोग होगा, इस चिन्तास मैना अस्थिर हो गई। जो करते थे। . : rol. XVII. .88