पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/१८७

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महाभारत १७१ रोहनपक्षमें शेपोक्त प्रसङ्गकी भरमार है। इस प्रसङ्गमें। धर्मका उत्पीड़न और पीछे धर्मको जयघोषणा करना दो अध्यापकने और भी कहा है कि इस महाफाथ्यसे भारतफे नोति-कथाका उद्देश्य है। आगे चल कर इस दृष्टान्तको दो सामाजिक चित्र देखे जाते हैं, पहला दाई हजार वर्ष ' अलङ्कारसे सजानेके लिपे इसमें बहुत-सी बातें जोड़ दी पहलेको अद्धं पुष्ट अवस्या और दूसरा उसके हजार वर्ष । गई हैं। नायक युधिष्ठिर दुर्दशाके मारे कहीं अधीर न हो वादको अवस्था - | · जायें, इसलिये किसी कविने नलोपाण्यानकी सष्टि की

अध्यापक डाः युहर ( Dr. Buhter )ने महाभारतका है। इसी प्रकार किसी कविने गान्ध विधागमें विवाह-

इतिहास आलोचना करते करते एक प्रवन्ध लिखा है, की वैधता प्रमाणित करनेके लिये शकुन्तलोपाण्यान, परोसे ५वीं शताब्दी तक वर्तमान स्मृतिप्रन्योंकी तरह, आसुर-यिवाहके उदाहारणखरूप माद्री, लक्षणा, सुमद्रा, महामारत भी एक उत्कृष्ट दृशान्तपूर्ण स्मृतिप्रन्य | अम्बा और अम्बालिकाका हरण प्रकाशित किया। शायद समझा जाता था। १८८४ ईमें अध्यापक लाडविगने इसी प्रकार नियोग प्रकार द्वारा सन्तानोत्पादन दूसाम्त- • गूढ. मालोचना करके लिखा है, कि महाभारतको जो स्वरूप पराशर द्वारा सत्यवतोफे, प्यास द्वारा आवालिका. इतिहास समझते हैं, ये भूल करते है, इसमें सन्देह नहीं। के भीर मेवगण द्वारा कुन्तीमादीके पुत्रलाभका पिधरण महामारतमें ऐतिहासिकताका यथेष्ट माय है। अध्या- प्रकाशित हुमा होगा। अलाया इसके वैष्णव और शेय पक होलजमान (Prof Holtaman) लादयिग मतका धर्मको प्रधानताको घोपणा करनेके लिये दार्शनिक तत्त्व बहुत कुछ समर्थन करते हुए "महारभात--प्राच्य और और अनेक प्रकारके उपाण्यानोंकी सृष्टि हुई। दातर प्रतीच्य" इस नामसे चार सएडमिनिमक एक बड़ी मशहमनने और भी लिखा है, कि द्रौपदीके स्वतन्त सचा

पुस्तक लिख गये हैं। . .

हो न यो, अविभक्त सम्पत्तिका विना यिसम्वादफे किस १८६५ ६०में डा० डाहमान ( Dr. Dahirmann)ने प्रकार मातृगण भोग कर सकते इसे दिखाने के लिये ही Das Mahabharata als Eposifund Rechtshuchi पत्नोरूपमें द्रौपदीका चित्र फेरिपत हुमा है। अध्यापक अर्थात् "महाभारतकाव्य और धर्म ग्रन्थ" इस नामसे एक होलजमनने दुर्योधन शब्दको व्युत्पत्तिमें भ्रम दिखलाते पुस्तक लिखी । उन्होंने आश्वलायनके गृह्यसूत्र, पाणिनिक हुए स्थिर किया है, कि फौरयके शवुमोंने पाएडवको ..प्याकरण, पतलिफे महाभाष्य तथा अश्वघोपके युद्ध । प्रसन्न करनेके लिपे महाभारतके इतिहास में बहुत वरित तथा.बौद्धोंके जातक और जनौको धर्म कथा जटिलता दिखलाई है। उनके मतसे पाएउयभक्त कपिने उपाख्यानोंको सन्दशता देख कर तथा अन्यान्य याताको दुर्योधन शन्दका दुष्ट वा कुत्सितयोद्धा अ लगाया मालोचना कर स्थिर किया है, कि वर्तमान मदामारता है। किन्तु इसका असल अर्थ है जिसे युदमें आसानी- का काथ्यांश ईसाजन्मसे ५ सदी पहले अति सामान्य से परास्त न किया जा सके । पाण्डवको प्रसन्न रखने के परिवर्तित आकारमें वर्तमान था। उन्होंने महाभारतको | लिये हो पाएडय पक्षकी सतता और नाना प्रकारके जटिल ममपुष्टि मालोचना कर यह दिखलाया है, कि महाभारतके विधि निषेधादि प्रतिष्ठित और समर्थित हुए है। किन्त उपाण्यान-शका पहले नीतिकथारूपमें प्रचार था। हाडाइमन अध्यापक होलजमनफे इस मतको मानान्त किन्तु ममी उसमें दूसरे दूसरे विषयोंका समावेश हो। बतला कर माननेको तेशर नहीं हैं। उन्होंने भी ऐति- जानसे यह पेसा हो गया है. कि उसमेंसे उपाख्यान मशा हासिकताफे अभावके सम्बन्धमें मध्यापक लागि बाद दे कर नीति कपाको चुन लेना एक प्रकार भसम्मय | मतको समर्थन किया है। है। पितृदोन पाएडवोंने दुष्ट दुर्योधनके हायसे फष्ट पा १८९५ में अध्यापक लाइयिगने महाभारतफे कर भाखिर महासमरमें सार्यसाधन किया । अधर्म द्वारा सम्बन्धमें एक बहुत लंपा चौड़ा प्रबन्ध लिखा। उस 'Journal of the american onental society, प्रयन्धमें उन्होंने कदा है, कि पञ्चपाएडव प्रोम, वां, for 1884 गरम, हेमन्त मोर बसन्त इन पांच अनुमोको मति।।