पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/९६

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28 गा कि आकशमगडलमें ध्र वको अवलम्बन करके समस्त नदी रूपमें मत्व लोक जाकर पापराशि ग्रहण करना ज्योतिष्क मण्डल अवस्थान करता है। उमो ज्योतिष्क पड़ेगा।" सरस्वती भी कुछ होकर गङ्गासे बोलों "तुमको मण्डलमें मेघ अवस्थित है। पौराणिकगम इसे ही विण भी इमी तरह फल भोगना पड़ेगा।" भगवानका टतोय पद जैमा वण न करते हैं । ( विषपुराच इमो समय विष्णु भगवान् पाकर उपस्थित हुवे और (२।८) मेघमे वृष्टि होती है और उसीसे गङ्गाको कहने लगे "जाओ ! दैवदुर्विपाकमे तुम भारतमें नदी उत्पत्ति है। बनो । देखो लक्ष्मी ! तुम्हारा पूर्ण अंश वैकुण्ठम वास गङ्गाका और एक नाम जाणवी है । रामायस और करेगा और अधा अंश धर्मध्वज राजाके धरम कन्य रूपम विष्णुपुराणमें इनकी कथा इस प्रकार लिखी हुई है :- जन्म लेगा। वही वादको तुलसो नामसे विख्यात महाराज भगीरथ रथपर चढ़ कर आगे आगे चलने लगे। होगा । दूमरे अंशम पद्मावतो नदी नाममे अवतीर्ण हो । स्रोतस्वती मङ्गाने भी ग्राम, नगर, वन, उपवनादिको गगे ! तुम भी विश्वपावनी मरित्के रूपमें अवतीर्म हो। वहात हुए उन्होंके पीछे पीछे प्रबलवेगमे गमन किया। भगीरथ अति आराधना करके तुमको ले जावंगे। वहां महामुनि जहु अपने आश्रममें बैठकर एक यन्त्रका आयो- पर मेरा अंश ममुद्र और मेरे अशक अशाप उत्पन्न जन कर रहे थे । गङ्गाकं जलसे यज्ञस्थल डब गया, यज्ञमें शान्तनुराज तुम्हारे पति हॉग।" (दामा० ८ ० ) विघ्न पड़ा। किन्तु मुनि तनिक भी न रटे, वरन कड हो महाभारतोय दानधर्मक मत में गङ्गाकं गर्भसे १५० कर गङ्गाको दबानका विचार किया। मोच समझ करके __ हाथ तक गङ्गातीर कहा जाता है। प्राण कण्ठगत अन्तमें वह गङ्गाको योगवलमे पान कर गये। देवता, अर्थात् अर्थक अभावम क्षुधा पार वृषणासे कातर होने पर गन्धर्व, मनुष्यादि मबके मब विस्मयापन हुए। गङ्गाकं भी किमोका दान इम स्थान पर ग्रहण नहीं करना नहीं रहनसे हम लोगांकी कमी दशा होगी इस प्रकार चाहिये । गङ्गाक किनारसे दो कोस तक "क्षेत्र" कह. चिन्ताकर मभी घबरा उठे और मुनिमे गङ्गाको छोड़ लाता है। गङ्गाक्षत्रम बैठकर दान, जप य होम कर- देनको माथना करने लगे। तब मुनिने अपने कर्मरन्ध्र नसे अमीम फल होता है । ( स्कन्द ) किसी किमी पुराणके द्वारा गङ्गाजीको परित्याग किया। इमामे गङ्गाका नाम मतम' भाद्र मामको कृष्णचतुर्दशी तिथिको गङ्गाजल जानवी वा जासुता पा । ( गमावण १ सः) जितनी दूरतक प्लावित होता है, "गर्भ" और उसके दूसरे देवीभागवतमें किमी जगह लिखा है कि लक्ष्मी, मर- भागको तोर कहत है। ( दानपर्व ) गङ्गाके उद्देश्यसे स्वती, गङ्गा ये तीनों नारायणकी पत्नी हैं और बैकुण्ठ- जाने पर पारदाय, परद्रव्यहरग्म, परद्रोह इत्यादि वामी विष्णु भगवान्के निकट ही रहतो धौं। एक दिन पाप विनष्ट होते हैं । गङ्गा दश न करमे ज्ञान, ऐश्वर्य, गङ्गा उत्म कतामे वार वार विष्णु भगवान्की ओर दृष्टि- आयु, प्रतिष्ठा, और मम्मान आदि प्राहा होते हैं । गङ्गा- पात करने लगीं। भगवान् भो उमे देख कर हंस पड़े, जल स्पर्श करनेसे ब्रह्महत्या, गोहत्या, गुरुहत्या इत्यादि किन्तु मरस्वती इम पर बहुत चिढ़ौं । उन्होंने भगवान्को समस्त पाप कूट जात हैं। मिंहको देखकर जिस तरह कुछ उलटी मोधो सुना दी। किन्तु भगवान् कुछ न बोल मृगगण भयसे विसन हो कर भागते हैं, उसी तरह गङ्गा- कर बाहर निकल गये। इधर गङ्गा और सरस्वतीमें माननिरत मनुष्यको देख कर यमक दूत भयभीत होकर कलह उत्पन्न हो गया । पद्मा मध्यस्थ वन लडाईको शान्त चल देते हैं, उमको यमका कोई भय नहीं रहता। करने गई । इमका फल उलटा हुआ । सरस्वतीने पद्मा गङ्गामें अज्ञात स्नान करनसे सर्व पाप नष्ट को ही पहले शाप दिया--."तुम नदी रूप धारण करके ज्ञानपूर्वक स्नान कर तो मुक्ति मिला करती है। श्रवणा पापियोंके आवासस्थान मत्वं लोकमें जावो।" गङ्गासे नक्षत्रयुक्त हादशी पुष्यायुक्त अष्टमी और आर्द्रा नक्षत्रयुक्त स्थिर न रहा गया, वे बोल उठौं “पना ! जिस तरह चतुर्दशो तिथिम गङ्गा मान करना प्रशस्त है। सरस्वतीने विना दोषकही आपको शाप दिया है, उसे भी वैशाख, कार्तिक और माघ मासको पूर्णिमा, माघ