पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/५२३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोपा ५२१ कोडा कर रहे थे। देवक्रममे खेलने में पार्वतीको जोत कालमें अघाशो नदीके तौर पर इमी लोमश लिङ्गमें हो हुई। एहिणोन द्य तक्रीड़ाम पराजित पतिको दो एक पूर्ण भावसे वाम करुगा। कलिकानमं यही नत्र मेरा उपहास या चाटुवाक्यसे तिरस्कार किया । शिवजोके मनमें एकमात्र वसतिस्थान होगा।" इमके दर्शन करनमे समस्त बहत दुःख हुवा। ये घर छोड़ वनवामो हो गए । दुःख विनाश होते। वृद्ध भोला मामांरिक सुखको आशा पर जलाञ्जलि दे वन 'धर पति वनवामी होनक बाद पार्वती भी उन्हें वनमें घमने लगे। इन्होंने पहले कृष्णा और बेणोके मङ्गम ढूंढ़ने के लिए बाहर निकली थीं। किन्तु कहीं भी पति पर तपस्या की थी। वह स्थान मगमेश्वर नाममे प्रमिड को न पाया। अन्तमें अघाशी नदी के तौर पर पहुच हुवा । परशुरामसे वह स्थान ब्राह्मणोंको दान दिए जाने । शिवको तपस्या करने लगीं। शिवजी पार्वतीको जांचन- पर शिवजो वह स्थान छोड़ मागरके निकट जा रहने लगे के लिए एक भयङ्कर व्याघ्रमूति धारण कर उपस्थित हुए। इसके बाद चम्पावतोमं आए अनेक दिन तपस्या को थी। व्याघको देख पावतो भयमौत हो गई । भयमे "मां इम स्थानमें रामेश्वर नामक एक लिङ्गको दक्षिगा ओर | गिरीश रक्ष" मा कहर्नमें 'मांगोश' बोल उती । इमके स्वयं मदाशिव विराजमान हैं। दमके बाद शिवजो गो- बाद शिवजों के मातात होने पर पाव तो बोली, "नाथ । मन्तक पर्वत पर गए थे । इम स्थान पर शिव जो गोमन्त आप हम स्थान पर मानीश नाममे प्रतिष्ठित हो वाम केश नाममे मर्वजनप्रमिड लिङ्गरूपमें आविर्भूत हुए । इम का।" शिवजी भी इम पर महमत हुए। उम स्थान निङ्गको पूर्व और ब्रह्मा विष्णु प्रभृति ममम्त देवता विराज पर माङ्गोश नाममे शिवलिङ्ग और देवी मूर्ति स्थापित करते है। लिङ्गक पथिममें यमश, उत्तर में ब्रह्मवादो ऋषिः हुए। पहले ये दोनों जलके मध्य स्थापित थ । “मांगोश" गण एवं दक्षिण भैरवा दशिवगण अवस्थित हैं, ऋषियांने यह नाम उच्चारण करनेम ममम्त यतका फल होता और शिवके दर्शन पाने के लिए मातकगड वर्ष तक अधाशो | इनका दर्शन करनम मव दाम्व दूर होते हैं। नदीक तौर पर तपस्या को था। शिवजोक माक्षात होने थोड़े दिनों बाद कान्यकुअनिवामी वात्म्य गोत्रीय पर ऋषियोनि इन्हें लिङ्गरूपमें उम स्थान पर रहनेको देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण अपनी स्त्रीक माथ तीथ- प्रार्थना की। उनकी प्रार्थनामे उस स्थान पर महाकोटीश्वर | यात्रा करते हुए अवाणी मङ्गममें पहुंचे। वहां ब्राह्मणने नामक एक लिङ्ग स्थापित हुआ। पञ्चनदो सान कर देखा कि एक गाय जन्नमें गोता लगा कुछ काल ठहरन- मानकोटोवरका अवलोकन करनमे मनोभीष्ट पूर्ण के बाद बाहर निकली। ब्राह्मणन इसका रहस्य न ममम हाता है। अधिवामियोंमे दमका कारण पूछा, किन्तु कोई भी कुछ 'गोमन्तक दणिण भागमें सागरकै निकट अधाशो नाम- कह न मका। इसके बाद दूमरे दिन ब्राह्मणन गौको को एक नदी है। यह नदी मह्याट्रिक पाददेशसे उत्पन्न पूछ पकड़ जलके नीचे जा तेजामय लिङ्ग और देवीमति हुई है। अघाशीके तौर पर प्रमिड कुशस्थलोपुरी है। देखे । देवशर्मान भक्तिपूर्वक निङ्ग की पूजा और पारा- इम पुरोम लोमश नामक एक पुण्यात्मा ब्राह्मण रहते थे, धना की। शिवजीन दर्शन दं अपना माहात्मा और लोमश किमो समय चन्द्रग्रहण उपलक्षको मङ्गमस्थलमें मागीश नामका कारण कह सुनाया, उन्होंने यह भी कहा स्नान करने के लिए पहुचे । ज्याहो उस ब्राह्मणन नदी कि प्रतिदिन कपिलाधन यहां आ मुझे दुग्ध दे स्नान प्रवेश किया त्योहो एक भोषण मगरने उन्हें पकड़ लिया। करके लौट जाती हैं, अतएव इमका नाम कपिलतीथ दारुण विपदसे लोमश शिवजोका स्तव करने लगे। शिवने होगा। इस तरहसे जन्नमग्न तोथ और लिमूर्तिका दश न दे उनको रक्षा को था। उस स्थान पर लोमश प्रकाश हआ। इसके दश नमे मनोवाञ्छा पूर्ण होती है। नामका एक लिङ्ग स्था पत हुआ। शिवजनि लोमशको ___'गोमन्तकै दक्षिणमें ममुद्र के निकट शलावली नगरी कहा था कि "इस गोमन्तक पर्वत पर शतसहस्र लिङ्ग है। इम नगरमें एक सिद्ध ब्राह्मण रहते थे। सिद्ध हैं, किन्तु उनमें में पूर्णांशसे अवस्थित नहीं हूं। कलि । मर्वदा शिवजीको उपासना किया करत। राक्षसीरूप- Vol. VI. 131