पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/४२३

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४२१ ८१७२११२०१२ १५१२४ १८१७ मान १२।२१।। १०:२२१४१४। २३५ . गुरुकुण्डली-गुरुगीता ज्योतिषमें एक प्रकारका चक्र । इमसे जन्मनक्षत्रक अनु स्थापन करनेसे उमको गुरुकुण्डली कहते हैं । ( १) मार एक एक वर्ष के अधिपति ग्रहका निर्णय किया पञ्चस्वराक मतसे-प्रथम स्थानमं रवि, २यमें चन्द्र, जाता है । इम चक्र बीचमै वृहस्पति और उसके पाठी श्यमें मङ्गल, ४र्थ में वध, वैम वृहस्पति, ६ठमें शुक्र, ७वे- तरफ आठ ग्रह स्थापन करने पड़ते हैं। इसमें गरु प्रधान में शनि, ८वमें राहु और वैमें स्थानमें केतु ग्रहको रख होनके कारण इसका नाम गुरुकुण्डली पड़ा है। कर रविसे लगा कर प्रत्येक ग्रह स्थानम तत्तिका आदि गुरुकुण्डली बनानका तरीका-अपरम नीचेकी नक्षत्र यथा क्र से स्थापन करने पड़ते हैं। ( वर ) तरफ पांच रेखाए खौच कर उसके बीच एक पाडी इन तीन प्रकारको गुरुकुण्डलियोममे पहनो ही सव व रेखा खोचना चाहिये। फिर उक्त चक्र प्रथमस्थान आदरणीय हैं, इमलिये उमौका चित्र दिया गया है। अर्थात् ऊर्ध्व मुखी जो रेखाएं खींची गई हैं उनममे बाई। गुरुकुण्डली। ओरको रेखाके ऊपरक हिस्म में रवि, द्वितीय स्थान अर्थात पाड़ी लकीरें जिस स्थानको भेदती हैं, वहां मङ्गल, | पनि तृतीयस्थान अर्थात् उक्त खड़ी रेखाकै निम्न भागमै केतु ध रम्पात रखना चाहिये। इमो तरह द्वितीय रेखाके मध्य स्थानमें चन्द्र, २य स्थानमें बुध, और ३य स्थानमें मुन्नाः तृतीय रंग्वार्क १म स्थान सुना, २य स्थानमें वृहस्पति, और श्य स्थानमें सुम्राः चतुथ रेखाक १म स्थानम सुवा, २य १०१९ . १४२५० स्थानमें शुक्र और श्य स्थानमें सुना तथा पञ्चम रखाक गुरुकुल ( मं. क्लो०) गुगः कुल, ६ तत्। १ गुरुका वंश। १म स्थानमें शनि, २य स्थानमें शून्य और श्य स्थानमें २ गुरुका वह स्थान जहां वे विद्याथि यौको अपने माथ राह ग्रह रखे जाते हैं । जिम जिम स्थानमें ग्रह बैठाये रख कर शिक्षा देत हैं। प्राचीन ममयमें हिन्दस्थानमें गये हैं उम उम स्थानम' पुष्य आदि नक्षत्रीको यथाक्र. यह प्रथा थी कि गुरु वा पाचार्य का निवासस्थान बहुत समे नेटाना चाहिये । जिस जिम स्थानमें सुना है, उम दूर एकान्तमं रहता और मनुष्य अपने लड़कंको पढ़नेके स्थानमें कोई भी नक्षत्र नहीं बैठाया जाता। पहले लिये वहीं भेजते थे ; जब तक शिक्षा ममाप्त नहीं होती विक स्थानम पष्य नक्षत्र स्थापन कर यथा क्रममे गहुके थी तब तक बालक लौट कर घर नहीं पाते थे। ऐसे स्थान पर्यन्त विशाखा नक्षत रखना चाहिये । और फिरमे हो स्थानको गुरुकुल कहते थे । रविकै स्थानमें अनुराधा स्थापन कर क्रममे राहुके स्थान- | गुरुक्कत ( मं० त्रि०) गुरुणा कृतं अनुष्ठित, ६-तत्। गुरुसे में पूर्व भाद्र बैठाना चाहिये । इमके बाद रविके स्थानमें | जिसका अनुष्ठान किया गया हो। उत्तरभाद्र और राहुके स्थानम पुनर्वसु स्थापित किया | गुरुकोप ( ० पु० ) अतिशय क्रोध, अत्यन्त गुम्मा । जाता है। इसोका नाम गुरुकुण्डली है। जिसका जन्म | गुरुक्रम (मं० पु०) गुरुरेव क्रमो यत्र, बहुव्री०। परम्परा- नक्षत्र जिम स्थानमें पड़ेगा, वहो ग्रह उमके प्रथम गत उपदेश, एक दूसरको उपदेश देना। वर्ष का अधिपति है। गुरुगल ( मं० त्रि. ) गुरु मम्बन्धीय । केतकगडलोमें जिम तरह वर्षाधिपतिक फलका वर्णन | गुरुगन्धर्व (सं० पु० इन्द्रताल छह भदो ममे एक भेद । किया गया है, गुरुकुण्डली में भी वैमा हो फल जानना गुरुगन्धिक ( मं० लो० १ गुन्नमहदोका पड़। २ मुसब्बर- चाहिये। किसी किसी ज्योतिषोके मतसे प्रथम स्थानमें | का वृक्ष । रवि, द्वितीयमें मङ्गल, टतीयमें केतु, चतुर्थ में चन्द्र, पंचम | गुरुगीता ( सं० स्त्रो० ) गुरम्सवनभूता गोता। गीता- में वुध, षष्ठमें वृहस्पति, सप्तममें शुक्र, अष्टममें शनि और [१)" भौमय के तुप पन्द्र : सौम्मा हम्पतिः। मवममें राहुग्रहके स्थानमें क्रमसे पुष्थ आदि नक्षत्रोको | पक्र: शमेव गह: कुण्डली स्याहहहम्पतः।" . Vol. VI. 106