पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३८९

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गुणभद्र पाचाय-गुगाभर ग्रन्थोंक देखने से भी यही अनुमान होता है कि ये कर्णा-| आदिपुरोग है, जिसमें कुल ४७ पर्व या अध्याय हैं। टक देशवासी होग। इस ग्रन्थ के ४२ पर्व और ४३ पर्वकं ३ श्लोक इनके गुरु ये ई० नवम शताब्दमें विद्यमान थे। इनके रहस्थ जिनसेनाचार्य के रचे हुए हैं तथा शेषकै ५ पर्व । १६२० अवस्थाके वंशका कुछ परिचय नहीं मिलता। परन्त श्लोक ) गुणभद्रस्वामान रचे हैं। इनकी रचना गुरुको मुनिवशका परिचय उनके ग्रन्थों और दूसरे उल्लेखो से रचनामे मिल गई है, यही इनको रचनाशक्तिका काफी भलीभांति मिलता है। महावीर भगवानके निर्वाणक परिचय है। उपरान्त जब तक श्व ताम्बर सम्प्रदायको उत्पत्ति नहीं उत्तरपुगत-नकै उत्तरपुराणको रचना एसी मनो. हुई थो, तब तक जैनधम संघभेदसे रहित था । पोछ हारिणी है कि, एक जैनतर विहान ( योयुक्त पं. कुप्य- जब विक्रमको मृत्यु के १३६ वर्ष बाद श्वेताम्बर सम्म स्वामी शास्त्रो) ने इममे जीवन्धरचरित्र निकान्न कर कृपा दाय पृथक हुआ, तब दिगम्बर सम्प्रदाय मूलमधवे डाला है। नामसे मिड हुआ। फिर इसके चार भेद हुए.--१ नन्दि संघ, २ देवम घ, ३ मेनमध, और ४ सि हम ध । इन भामा नगा मन-इम ग्रन्थको रचना शैली भर्ट हरिक वैराग्यशतक ढङ्गको और व मी ही प्रभावशालिनी है। मेंसे सेनसंघको परिपाटोमै गुणभद्र अवतीर्ण हुए। यथा- गुणभट्रस्वामौर्क यो तो बहुतसे शिष्य थे; किन्तु दो 'माय बदाब यदि जन्मनिपक त्य-माप्त त्वया किमपि बच जनाहितार्थम । का विशेष परिचय मिलता है-एक लोकमेन, जिनके रसावदेव परमम्नि मतम्य पसात मम्भय कायमस्ति' तब भान्ति ॥२॥" लिये आत्मानुशामन ग्रन्थको रचना हुई और दूसरे मण्डल पुरुष, जिन्होंने चुडामणिनिघण्ट नामक ट्राबिड़ भाषाका है भाई ( आत्मा) : यदि तूने अपने इम जन्ममें अपने बन्धुजनोंसे कुछ बन्धुताका लाभ पाया हो, तो मच सच कोश बनाया। बता तो महो। हमें तो उनका इतना हो उपकार अनुभव गुणभद्रस्वामी के १ गुरुपरम्पराका इस प्रकार पता होता है कि, मरनके उपगन्त ये मब इकडे हो कर तेरे चला है- अपकार करनेवाले दम शरीरको जला देते हैं। "जानमेव फल जाने नन माध्यममवरम् । वाग्मेन अहो मोरम्य माहात्मामश्वरप्य व मागते ॥१५॥" जानका फल जान ही है, जो सर्वथा प्रशंमा योग्य और अविनाशी है। इमको छोड़ कर, अन्य जो मांसारिक फलौकी इच्छा की जाती है, वह अवश्य ही मोह वा गुणभद्रखामो मूर्खताका माहात्मा है। अभिप्राय यह कि, जानके लो सेम मण्डल पुरुष रहनसे जो निराकुलता रूप सुखका अनुभव होता है, गुणभट्रस्वामीकै समयमें अर्थात् विक्रमकी ७वौं उसको छोड़ कर लोग विषयसको टटोलते फिरत है, शताब्दीमें दिगम्बर मुनि प्राय: भारतवर्ष के मर्वत्र विहार वह नितान्त मूर्खता है ! किया करते थे और साथ ही धर्मापदेश देते और ग्रन्थोंका गुगाभद्राचार्य शक-मम्वत् ८२० तक जीवित थे । इन प्रणयन किया करते थे। यही कारण है कि उत्तरपुराण- | के वर्गवासका ठीक समय मालूम नहीं होता। की समाप्ति धारवाड़ प्रान्तके अन्तर्गत बंकापुरमें हुई थो। गुणभर-चोलदेशकै एक शव राजा। कोई कोई इन्हें उस समय वहांका राज्य अकालवर्ष के सामन्त लोका- | पल्लववंशीय अनुमान करते हैं। विशिरापाली पहाड़ दित्यके अधिकारमें था। ऊपर खोदी हुई शिलाफलक पर इनकी अमुशासनलिपि जैनोंका सबसे बड़ा प्रथमानुयोग ( पौराणिक) ग्रन्थ | देख पड़ती है। एकाचार्य विमयसेन जिनमन दसरथ गुरु भोपामा माधवष महागज