पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३६६

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गुग्ग ल क-गुच्छकरच ग्रहल नहीं करते। ( प्रयोगामत ) ३ मास पर्यन्त गुग्गुलु | गुच (हि. स्त्री० ) पञ्जाबको डाढ़ीदार भेड़ । पूर्ण वीय रहता. फिर गुण और वीय घटने लगता है। गुची ( हिं• स्त्री० ) मा पानीको गुच्छ, आधी ढोली। इसकी शोधनप्रणाली यह है कि उसको खण्ड खण्ड १ भूमिमें खोदा हुअा गढ़ा । २ छोटे करक गुड चौ तथा त्रिफलाके क्वाथ और दुग्धमें पाक छोटे लड़कोंके गुल्ली खेलनका गट्टा । ( वि०) ३ बहुत- करते हैं। गोधित गुग गुलुको ही म्यवहार करना छोटौ, नन्ही । चाहिये । (रम पन्द्रिका ) दशमूलके ईशदुष्ण क्वाथमं उसका गुच्चीपारा (जि. पु. ) कोटे कोर्ट लड़कोंक कोड़ो फेंकन- निक्षेप करके आलोडन किया जाता है। फिर बारीक का गट्ठा। कपड़े से कान करके धुपमें सुखा घी मिला देते हैं । ऐमा गुच्छ ( मं० पु० ) गु-क्वपि गुत् शब्दविशेषः तं श्यति तनु- करनेसे वह शुद्ध होता है। (व दा कनिधए) करोति निवारयति गुत्-शो-क। १ स्तवक । २ घाम- यह वृक्ष भारतवर्ष और अफ्रीकामें स्थान स्थान पर की जरी। ३ वह पौधा जिममें मजबूत कागड़ वा पड़ी उत्पन्न होता है। इसके निर्यासको चन्नती अंगरेजोम न हो. मिर्फ पतं या पहली लचोली टहनियां फैलें। (Bilclium) कहते हैं । देखने में यह गल जमा । लगता ४ बत्तोम लड़ीका हार। ५ मातोका हार ६ मोरकी है। किमो स्थानका गुग गुल पीला-जमा ओर कहीं कहीं पक। का गहरा लाल होता है। इममें थोड़ीमी मीठो महक भी गुच्छक ( म० लो० ) गुच्छ मंज्ञायां कन् । १ ग्रन्थिपण, रहती है। अंगरेजी मतानमार वह तारपीन तेल जैसा| गढ़ीला पत्र। (पु.) गुच्छ स्वार्थ कन। २ स्तवको उत्तं जक है. खानमे श्लेष्माको झिल्ली विशेषत: फेफड़े | इसका पयाय-स्तम्ब, कुसमोश्चय, गुच्छ, गत्म. गत्मक. पर उमका कार्य होते रहता है । कठिन कफरोग, बहु । रीठाकरच और गुलञ्च है। ३ एक प्रकारका वृक्ष । इस कालम्यायो दरोग, जलवत् ने मानाष रोग और | वीज डिम्बक सदृश होता और व्याम (घेरा) से तक कण्हनलीव रोगमें खाने या उसके धुए का नाम लेनसे । रहता है। इम वृत्तका वीज दृढ़ तथा ममृण होता और विशेष उपकार देख पड़ता है। कठिन व्रणरोग, क्षत और इसके चारो तरफ काल होते हैं। दमका गण बल. स्कोटकादिके पक्षमें भी वह तेजस्कर औषध है । १५ग्रे नमे| कारक और पाला ज्वरनिवारक है। पन्नाबवामी इम २ ड्राम मात्रा तक उमको सेवन कराया जा सकता है। में हिङ्ग मिलाकर खाते हैं। इसका वीज दीर्घकाल गुग्ग लुक ( मं० त्रि. ) गुग्ग लपण्यमस्य, गुग्ग म्न छन् । स्थायी रहता है। चट्टग्रामक मनुष्य इसमें मरिच मिन्ना गुग्गु ल-विक्रता, गुग्गल बचनेवाला। कर वरी प्रस्तुत करते हैं। डाकर एनमलि साहबका गुग्ग लुगन्धि ( मं• पु०-स्त्रो०) गुग्ग लगन्धो लेशो यस्य, मत है कि इसके लिये आक्षेप ओर पक्षाघातरोग आरोग्य बहुव्री.। गो, गाय। (त्रि. ) गुग्गु लोर्गन्ध इव गन्धा- ऽस्ख, बहवी.। २ गुग्गु लके महश गन्धयुक्त । गुच्छकच्छद ( मं. पु. ) ग्रन्धिपण, गठोला। गुग्ग लुबटक ( मं० पु.) वातव्याधि। गुच्छकणिश (मं. पु.)गुच्छवत कणिश:, बहवी० । धान्य गुरु (मं० पु.) वेदप्रसिद्ध एक जनपद । (शक १.४८१८) विशेष, रागो धान। गुरु मरु---जनपदविशेष । ८१६ को इस सान पर भोटराज रलपाचन और चीन राजामें मन्धि दुई थी।। गुच्छकन्द ( सं० पु. ) कन्द शाक। दोनों के मंत्रसामिवन्धममें यहां एक मन्दिर निर्माण किया गुच्छकरन ( मं० पु०) गुच्छाकारः करञ्जः । एक प्रकारका गया था। इस मदिरके संलग्न एक प्रखरखण्डमें सूर्य करन। दुमके पत्तं अतिशय स्निग्ध और पुष्प गुच्छाकार तथा चन्द्रमाको प्रतिम तियाँ खुदी हुई है जिसके नीचे | होते है, जो देख्नमें वरत मनोहर लगता। इसका इस प्रकार लिखा है "जब तक सूर्य और चन्द्रमा बाकाश पर्याय-मिग्वदल, गुच्छपुष्पक, नन्दी, गुच्छी, मानन्द बार भ्रमव करेंगे तब तक इन दोनों जातियोमें सख दन्तधावन हैं। इसका गुण कटु, तिक्त उप्प, विष, वात- भाव रहेगा।" ... . ....... . रोग, कण्ह विचर्चिका, कुस्पर्श एवं त्वक दोष,नाशक ।