पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/३५७

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गौता ३५५ हैं। साधारणतः अधिकांश ग्रन्यों में ७०० और किप्ती , पूर्वकालको निकली थीं, लुल्ल हुई; भविष्यत्म वह किसीमें ७०१, ७०२ वा ७४५ गणनाका उल्लेख है। १३ | पाविष्कत भी हो सकती हैं। वें अधायका प्रथम श्लोक * अधिकांश गीताओं में नही महाभारतके प्रायः सभी टीकाकारोंने नाना प्रणा- है। इसको जोड़ लेनेमे लोकसंख्या ७०१ हो जाती है। लियोंमें गोताका अर्थ सुबोधगम्य और तत्सम्बन्धोय एशियाटिक मोसाइटीने देवनागराक्षरों में जो महाभा. तत्त्व तथा रस माधारण हृदयग्राही बनानका विशेष रात कपाया, ७०० श्लोक रहते भो श्लोकोंक विच्छ दामु- यन किया है। फिर भी उसमें अनेक कट मचित होते मार ७०२ अह पाया है। युक्तप्रदेशके लिखित महाभा- | हैं और कोई कोई कथा अभी भी अमीमांस्य हो रह गयी गसमें गोताक अन्तमें ए श्लोक है। उसमें बतलाया है कि है। महाभारतको माहात्मासूचक रूपकवर्णनामें लिखा गोतामे कृष्णोक्त २०. अर्ज नोक्त ५७. सध्नयोक्त ६७ और | है कि व्यासजीक मस्तिष्क महाभारत-ग्रधित होने पर धृतराष्ट्रोक्त १ श्लोक है । इन सभी अङ्गोंको जोड़नेसे ७४५ | ब्रह्मा अपने पाप उनके उत्साहवर्धनार्थ पहुचे और संख्या पातो है । तैलङ्ग काशीनाथ वाम्बकने अपनी | गजीन लेखकपद ग्रहण किया था। किन्तु जब गणेश- गोताके अंगरेजो गद्यानुवादक मुखबन्धमें उक्त लोककी जोन प्रसाव किया कि हम चारों हाथोंसे लिखेंगे और बात उठा करके कहा है- हम ७४५ संख्याका कोई | व्यासजीके कविता कण्ठोदित करने या रचनानुगेधर्म कारण निर्देश कर नहीं सकते हो ! यह अनुमान सबकाल ठहरने में लेखनीका वेग सकन पर लिखना लगाते हैं कि वह लोक किमी प्राचीन समयको छोड़ देंगे। व्यासजी मन ही मन कहने लगे-गमेमजी महाभारतमें प्रक्षित हुए होगे । फैजीने फारमी कविताके सकल स्थल विना ममम बम लिपिबह कर न भाषामें गोताका जो अनुवाद किया है, उसके उसमें | सकेंगे। व्यामजोको कण्ठनिम्मृत कवितामें ८८०० कूट- लिखा है-वैशम्पायनने संक्षेपमें गोनाको प्रशंसा सोक उच्चारित हुए । उसका प्रकृत अर्थ बोधगम्ब करमेके परकण, अर्जुन, सञ्जय और धृतराष्ट्रको उक्त संख्या- लिये गमेशजीको समय समय पर मोचना और लेखनीका को गामानुसार ६२०, ५७, ६७ और १ बतलाया है। उस | वेग रोकना पड़ा था। उन्हीं लोकों का नाम व्यास कूट को जोड़नसे ७४५ पाता है। इस ग्रन्थको प्रतिलिपि है। अतएव कौन कह सकता है कि गीताके मधाम भी १२२२ हिवरीको लखनऊ नगरमे प्रसत हुई थी। यह | व्यासकूट नहीं। पुस्तक राजा सर राधाकान्त देवके पुस्तकालयमें रखी अनुपम अनन्यप्राप्य दयाकर्षणीय गुण रहनसे भारत है। परन्तु शहरभाथमें गीताकै शरभाष्यमें गीता ७०० मोकोकाही वर्षके प्रायः सभी सभ्य स्थानों में तत्तद्देशीय विविध सम्प्र- ७०० सोकोका ही उझेख है। दायी हिन्दुओंने स्वदेशप्रचलित अक्षरोंसे गीताका मूल गोता पपनी महोत्कटताके कारण बहुकालावधि | लिख या छाप और अपनी २ देश भाषामें अनुवाद करके महाभारतसे उद्ध,तो पृथक् रूपमें निकलतो पायो है रखा है और करते जा रहे हैं। देशी और विदेशी नाना और इसका महोज्वल गम्भीर भाव पोर बहुतसा जटि- विरोधी धर्मावलम्बो लोग भी (जो हिन्द नहीं हैं) गीता- सत्व मिताक्षरेमि सबिवेशित रहनेसे प्राचीन एवं नव्य | को महितीध्वनि सुन करके अपनी अपनी भाषाके गद्य- विविध साम्प्रदायिक बुधिविशारद भक्त परिव्राजक प्रभृति | पद्यमें उसका अनुवाद, रहस्य, व्याख्या, ममालोचना, महात्मा गीताके भाषा, वृत्ति, टीका प्राची तथा विविध अनुमोदित धर्मालोचना और प्रशंसावाद प्रकाश करते हैं। प्रकार व्याख्या कम कागड, ज्ञानकागड और ते रहे हैं। किसो निरभिमानी फारमी इतिहासवेत्ताने ११२६ पून समी व्यक्तिरचना और जगहित षिता-व्रत इत्या | ई०को स्वीय रचित इतिहासमें लिखा है कि अबू सलाह और प्रकाशित रूप गोसावतिया जा कर्डक किसी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थका अरबी भाषाम एक • "प्रति कुरुप ब नवा अनुवाद रहा । १.२६ ई.को यही परबो अनुवाद पबुल- एतापम मिचानिजाम हुसन नामक एक व्यक्ति द्वारा फारमी भावार्म अनु-