पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२४९

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गलश-गलगण्ड २४७ श्य 'उगलि" वा पुरुष, ३य "अनि" अर्थात् स्त्री वा आदि भावप्रकाशमें इस प्रकारमे लिखे हैं-गन्ने में बड़ी शक्ति । शनि और रविवारको ये लोग किसी तरहका या छोटो अण्डकोष जैसी लम्बी और कड़ी मजन उठ- कार्य नहीं करते हैं नेसे गलगगड़ कही जाती है। भोजराजके मतमें गाल, २ सिंहलके दक्षिण-पश्चिममें समुद्र उपकूलस्थ एक कंधकी नस और गलेको आश्रय करके उठनेवाला अण्ड नगर । यह एक पहाड़के अपर अवस्थित है। पर्वतको कोष जैमा बढ़ा हुआ शोथ हो गलगण्ड है। वायु, लम्बाई मम द्र तक चली गई है। इस पर्व तके ऊपर एक कफ, वा मेद बिगड़ करके गलदेश और मन्याय ( कंधे- दर्ग भी विद्यमान है। कलम्बोसे यह ३५ कोस दक्षिण को दे नौ नमें) आश्रय करनमे क्रमशः गलगगडरोग पश्चिम है। अतिप्राचीन कालसे हो यह वाणिज्य स्थान लगा करता है। होनेके कारण बहत प्रमिड हो गया है। फिणिकके गलगगड चार प्रकारका है वातज, नेमज, कफज और वणिक यहां आकर वाणिज्य करते हैं। मेदोज। वातज गन्नगगड श्याम वा अरुणवर्ण वेदना. गलश (हिं० सी० ) वह सम्पत्ति जिसका मालिक मर युक्त और कड़ा होता है। वह कृष्णवर्ण शिरासमूहमें गया हो और उसका कोई उत्तराधिकारी न हो। व्याप्त रहता और कालविलम्बसे बढ़ता है। वातज गन्नकंवन ( हिं० पु.) झालर. जो गायके गलेके नीचे गन्नगगड प्रायः न पकत भी कभी कभी विना कारण हो लटका रहता है। पक जाता है। गेगोका मह फीका और ताल तथा गलक ( म० पु० ) गन्नतोति गल अच मज्ञायां कन्। गला मुखने लगता है। कफज गलगण्ड़ स्थिर, गुरु, गड़ाकू नामको मकन्नी। शीतल, अत्यन्त कगड तथा अल्प वेदनायुक्त और शरीरके गलका (हिं० पु.) एक प्रकारका फोड़ा । यह हाथ की वण -जेमा होता है। यह काल पा करके बढ़ता और अंगुन्नियोंकि अग्र भागभ होता और बहुत कष्ट देता है। पकता है। रोगीके मह भीतर मधुर रमयुक्त और बाहर गलकोगडा वा गलि पर्वत-मन्द्राज प्रदेशके विशाखपत्तन चिकना जैमा रहता, गलेकी नालीमें सर्वदा शब्द हुआ जिलेकी एक पर्वतश्रेणी। यह अक्षा० १८. ३० उ० करता और ताल तथा गन्ना कफमे भरा-जैसा लगता है। और देशा० १८५० पू० पर अवस्थित है । इस पर्वतको मेदोज गलगगड चिकना, कोमल, पाण्डु वर्ण, दुर्गन्ध दो चोटियां हैं जिनकी लम्बाई क्रमशः ३५६२ और युक्त और कगड तथा वेदनाविशिष्ट होता है। यह ३५१४ हाथकी है। ऊपर चढ़नेका एक रास्ता भी चला कद्द जैसा लम्बा पड़ता और शरीर दुबला रहनेसे छोटा गया है । १८६० ई०को इस स्थानको जलवायु उत्तम और मोटा रहनेमे बड़ा लगता है । रोगीका मुख चिकना समझ कर यहां अंगरेजी सेना रखी गई थी, किन्तु बार उठता और गलेमें हम शा शब्द हा करता है । गलगण्ड- बार ज्वरसे पीड़ित रहनके कारण उन्होंने यह स्थान के रोगोको यदि मांस लेनम बड़ा कष्ट पड़े और अरुचि, कोड दिया। विजयनगरके राजाका यहां एक विस्त त स्वरभङ्ग वा सोगता लगे, तो चिकित्सक उसको परि- क्षेत्र है। त्याग करदे-वर असाध्य होता है। रोगीका शरीर गलकोड़ा (हिं. पु० ) १ कुश्तीका एक पेंच । २ एक मृदु किंवा संवत मर अतीत होनेसे भी गलगगड अमाधा प्रकारका कोड़ा वा चाबुक । समझा जाता है । ( भावप्रकाश) गलगण्डिन् ( स० त्रि०) गलगण्डोऽसास्तोति नि । गलगण्ड रोगको चिकित्मा इस प्रकार चलती है। गलगण्डरोगी, गलेमें जिमको गलगड रोग हवा हो। मरमों, महिंजना तथा मनका वीज, अलमी, जौ और (सप सनिदान १०) मुलोका वीज खट्टे म8 के माथ पोम करके चुपड़ देनसे गलगण्ड (म पु० ) गले गण्डः स्फोटक इव गलरोग- बहुत पुरानी गण्डमाला नष्ट हो जाती है। खेत अप विशेषः, गलेको एक बीमारी। चलती बोलीमें इसको राजिसाकी जड़को पोम करके सवेरे घौके साथ लगा- गण्डमाला कहते हैं। गलगण्डके लक्षण और निदान सार खानसे भी गलगगड़ मिटता है। पकी कडवीलोको