पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/६२८

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वर्ण-वर्णक कुण्डली मभी यों में मिले करमतमय जगत्को प्रकाश, हृदयसे उठ कर फ्रमश युद्ध वा सङ्कल्प साथ करती है। यह कुण्डलो शब्द और शम्दार्य का प्रतिनो | सयुक्त होता है, तब यह मध्यमा तथा उमझ बाद बुद्धिस तथा त्रिपुष्कर अर्थात् ज्येष्ठ, मध्य मौर कनिष्टके भेदसे | उठ र क्रमश कण्ठगन हो मुख द्वारा अभिव्यक्त होता है, तीन नार्थ पव उदात्त अनुदात्त प्रकृति पर समाहारका तप वह बरी है। यह चैखरी व अस्थापन प्रकाशक है । तत्रशास्त्र में कुण्डली का परन देवता कहा | नादसे हो पवन प्रेरित होता है, तब वसमूह मयों के गोचरीभून होते हैं । परा गोर पश्यतो दशाप न वर्ण चपन और श्रोत्रपक्ष अपरिष्कार रहता है इस कारण | योगियोंके प्रत्यय होते हैं, दूसरेक पक्षमें यह प्रत्यक्ष यह कुण्डली नब अस्पष्ट वर्ण अर्थात् अस्फुट ध्वनिमें | होना असम्मय है। भालापादि रोका उद्यत होती है, तब मूलाधारमें मा! व्याकरणके मतसे घणाक उत्पत्तिस्थान आउ हैं। परयनित होता है तथा सुषुम्ना नाडा भी उस ध्वनिस | जैसे-हृदय, शिर, जिह्वा दत, नासिका दोनों मोष्ठ गौर पार घार भारोडित होता रहती है। तालु। इनमेंस ाक, ग, घ, ड ह और पिसग (1), पहले जो तलोर परदेवत कुण्डलाकी बात कही। इन सब वणों का उच्चारणस्थान कण्ठ, च, छ, गइ है, यह द्विचत्वारिशद्वर्णर्म मिल कर इस प्रकार कम ! ज, म प्र य, श, इनका उच्चारणम्धान तालु , 2, 3, परम्परासे अकारसे ले कर मकार तक द्विपत्यारिशदा । छ, ढ ण र, प, इनका उचारणस्थान मुर्दा ल ल त, हमर वर्णमालाका उन्नाचन करतो है। यह द्विपत्यारि | पद, ध, 7 ल स ाका उच्चारणाधान दत, उ, ऊ शदात्म वर्णमाला हो भूललिपि मन्त्र है। कुण्डलिनी । प, फ म, म और उपभमानाय इत्यादिका उच्चारण सर्वशक्तिमया और शब्रह्मरूपिणा है। यह जिम क्रप | स्थान ओष्ठ, दन्त और ओष्ठ, ' ' ण्ठ और तालु से वर्णमाला प्रसर करता है, वह इस प्रकार है, जैम- तथा जिह्वा मृगायका उच्चारणस्थान जिह्वामूल है। पहले कुएडास शचिका विकाश, शक्सेि ध्वनि, पनि प्रसारके तृतीय परलम देवमध्यस पच मधों या मे नाद, नादम निरोधिका निरोधिकासे गन्दु अर्द्ध दु अक्ष की उत्पत्ति सम्ब में इस मार लिया है- मपिदु मिन्दुस अन्यान्य सभी उत्पन्न होते हैं। ममस्त पण समोर सञ्चालित मुपुम्ना नाडोक रकमध्यसे अक्षरोंकी उत्पत्तिक सम्यधर्म हो परम्परा इसी प्रकार है। निकलते हैं। पाछे कण्टादि स्थाओ आलोडित कर चिच्छति सत्यमबलित हो र शम्दपदयाफ्प होती। यदन वियरसे बाहर होत है। उश उभाग यायु उदास है। यह फिर जब उम सयसम्बलित अवस्थामै आश | स्वर उत्पादन करती है। यह वायु नोगत हो कर अनु शस्थ हो कर रजोगुणमे मनुविद्ध होती है, तब पनि दात्त तथा तिच्या भाव जा कर म्परित अक्षरको उत्पा शब्द कहलाती है। ध्वनि अक्षर अवस्थाम तमोगुणसे | दा होतो है । इस प्रकार पाई पर द्वि गौर निसख्यक अनुद्धि हो नादादयाषय होती है। यह अयतापस्था | मात्रामें ममी लिपियोका सृष्टि हु। यह व्यञ्जन पर तमोगुणकी मधिक्ताक कारण निरोत्रिका शब्दम पुकारी | दीय और प्लुत कहलान लगो। जाती है। वह निरोधिका फिर रत और मत दोनों गुण | वणाभिधाम अ स ह पयन्त प्रपेक घणक स्वरूप का आधकतास मदु हो जाती है। अरदारकीस्तुम और अर्धारित विस्तृत विवरण लिलाई 'अ' से 'हे' और पदार्थादर्श मादि प्रयोंमें लिखा है,- पर्य त प्रति वर्णकी उत्पत्ति, म्यरूप और अर्थादिका विर परा पश्यता, मध्यमा और चैलरी, अवस्थाभेदसे पे | रण दिया गया है। सब सहासङ्कते हैं। पर्ण जय नादरूपमें मूगधारसे वर्णक (स.लो०) पायतीति वर्ण घुल । १६रिताल, पहले पहल उत्पन्न होता है, तब उम परा कहते हैं। दरताल । २ अनुलेपन उबरन । ३ चन्दन । (दु.) पोछे जब यह वर्णनादरूपमें मूलाधारसे उठ कर प्रमश | ४ विलेपन । वर्णयति नृत्यादीन् पिस्तारयति । हृदयगत होता है, तब यह पश्यन्ती है। इसके बाद जब ५ चरण । ६ मएल । (पु० स्त्री०) यात रज्यनेऽनेनति, Vol x 161