पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/३०२

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लिखितस्मृति-नित ३०७ हिताके कर्ता है। इस सहितामें १२ शोक हैं। सामर्थ्य । ८ पुरुषमा चिविशेष जिसके कारण स्त्रोसे लिखितम हिताके मतस पोखरा पुदवा और ब्राह्मणों , उसका भेद 17 जाता है, पुस्पको गुप्त इदिय । पर्याय- के रिये अग्निहोत्र करना पडे पुण्यके कार्य है । ब्राह्मण शिश्न, स्वरम्तम्म, उपस्थ, मदनाकुश, पन्मु पल, मेहा क्षत्रिय, वैश्य जो कोइ जरदान करेगा, उसे मुचि अवश्य | शेफस मेढ , लाइ, ध्वज, रागल ता ध्यग लागुल, मिलेगो यह महर्षि लिखित उादेश है । इस स हिताके साधन, सफ, कामा कुश। (आधा) मतसे काशीर्म वाम करना तथा गया पिण्डदान परना तत्र में लिया है, कि रिदमूलमें स्वाधिष्ठान नामक घडा उत्तम है। महर्षि लिपित कहते हैं कि जो जो पडदल पन है । इम पद्मा वकार आदि करके लकार तर कार्य अपनेको धुरे मालूम पडे उनके प्रायश्चित्त के लिये वर्ण रहता है। एमी गाठ घार गायत्री जप करनेमे उमरा पल्याण | सामुहिम लिङ्गके शुभाशुम लक्षण इस प्रकार होगा। लिसे है, रिङ्ग कडा होनेसे दीघजीवी क्षुद्र होनेसे धनी लिखितस्मृति-एक प्राचीन स्मृति । यावत्य आदि इम तथा स्थूल होनेसे नि स तान तथा दरिद्र होता है। लिङ्ग का उन्नेख कर गये हैं। वाइ ओर झुका रहनेस मनुष्य नि स तान और निधन, लिघेरा (हि • पु०) लिवनेवाला, रेलक। दक्षिण ओर मुकारनेसे पुत्रवान् और नीचेकी ओर झुका लिया (स. स्त्रो०) १ जूका अग, लोग्न । २एक ! रहनेसे दरिद्र होता है। लिङ्ग छोरा रहने से मनुष्य पुन परिमाण। लिक्षा देग्यो। वान् शिराविशिष्ठ होनेसे सुनी तथा स्थूउपश्थियुक्त लिगदी (हि. स्त्री०) मनोर छोटो घोडी।। रहोसे पुवादि तथा साना सुम्नसम्पयुन होता है। हिगु ( स . ती०) लिङ्गति विषयात् विषयातर गछति । दीलिन होनेस दरिद्र, स्थूल लिङ्ग होनेस अर्थहीन, लिंग। खशकुप युतीला लिगु । उण १।३७) इति कुप्रत्य । कृष्णवर्ण होनेसे भाग्यमान तथा घुलिग होनस राना येन साधु । । मन। (पु.) २ मूर्त। ३ भूमदेगा होता है। लिङ्ग पनिष्ठ और कषश होनेस परयारत ४मृग। कृष्णपण, सूक्ष्म वा रक्तवर्ण होनेस सुखा, पर स्त्रीगामी लिइ (स० को०) लिङ्गाने बनेन इति विघम् पुसि और त्रियोंका प्रिय होता है। यश या रक्तरण लिङ्ग धना' इति नियमेऽपि अमिधानात् शीयरिङ्गत्व । १ यह रहनेम मनुष्यको उत्तमा स्त्री राज्य और मुग्नसम्पद् जिससे किसी यस्तुकी पहचान हो निह । क्षण २ ह | पाप्त होती है। निममे किसी यस्तुका अनुमान हो, माधा देतु ।३मा शिस्मृतिविशेष, शिवलिङ्ग। हिन्दमालको शिव के अनुसार मूल प्रति । साख्यफे मतसे मूल प्रति हा लिङ्गको पुजा करना क्त्तव्य है। शास्त्रमें शिवलिंग पूजा लिङ्ग तथा प्रतिके विधति कार्यको भो लिङ्ग पहन का मन त फल लिखा है। यहा तक, शि ग्राह्मणों को रियलिङ्ग पूजा किये बिना जर भी प्रहण ही करना विनि उसकी प्रतिम लीन होती है इसलिये उस | चाहिये। का नाम रिद्ध है। सारूपतत्सकीमुदी में लिखा है, स्य महादेवने क्सि कारण यह लिङ्ग प्राप्त किया था, उम गच्छनानि लिङ्ग ल्यको प्राप्त हाती है, इसोस उसे लिङ्ग का विषय पद्मपुराण उत्तरखएके १८३ अध्यायमें इस कहते हैं। प्रकृति रब्द देखो। प्रकार लिया है,- ४ व्याकरणमें पद्द भेद जिसमे पुरष और स्त्रीका पता दिलीपो पशिष्टस प्रश्न किया कि, देवादिदेव महादयो रगता है । जैसे-पुलिङ्ग सोलिड्। ५ मीमासामें छ भार्या सदित यह विकरार रूप क्यों धारण किय था? रक्षण जिमय अनुसार लिङ्गा निणय होता है । यथा-1 भगवान पतिदेवने उत्सरर्म कहा कि स्वायम्भुर उपम, उपरहार, अभ्यास, पूरता, अथवाद और उप मच तरमें मन्दार पनि पर ऋषिगण एक दोर्ड पत्ति। ६ मठारह पुराणोर्मसे एन । सिन्नपुराण देखा। । सनका अनुष्ठान करते थे। उस यशर्म समा मुनि