पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/२२५

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२३० लाता पाण्डवके जतुगृहदाहकी कथा किसीसे भी छिपी नही उत्तर पश्चिमके गढ़वाल जिलेसी विस्तृत वनभूमिमें है। उस समय उत्तर पश्चिम भारतमें लाक्षाका जो बहुत तथा अयोध्याके दक्षिण-पूर्व विभागको वनराजिम प्रचुर प्रचार था, वह दुर्योधन द्वारा बनाये गये जतुगृहस ही लाक्षा उत्पन्न होती है । मिग्जापुरके लाहके कारखाने में मालूम होता है। यही जतुगृह उस समयके लाक्षा शिल्प, अयोध्याकी लाहकी ही अधिक आमदनी होती है | पाबमें (Lac industry)-का प्रकृष्ट निदर्शन है। बहुत कम लाह उत्पन होती है । सिन्धुप्रदेशमें ईदगवादके भारतीय लाक्षाका अंगरेजी नाम Lac तथा अरण्य विभाग जो लामा उत्पन्न होती है उसका अधि- लाक्षाजात द्रव्यों का नाम "Lacquer ware” हे । काश स्थानीय प्रसिद्ध खिलौने बनानेके काममें व्यवहत इतिहासका अनुसरण करनेसे पता चलता है, कि भारत- होता है। मध्यप्रदेशको पहाड़ी वनभूमिमें जितनी लामा वसे यह द्रव्य अरवी दणिकों द्वारा एशियाखण्ड में लाया उत्पन्न होती है उसमे स्थानीय मनुष्य चूडी आदि बनाते जाता था। वे लोग इस दृश्यको लाख नामसे ही वेचते हैं । अधिकांश रेलगाडी द्वारा कलकत्ते और वम्बई शहरमे थे। प्रायः ८०-६० ६०में पेरिप्लसकी लेखनीसे मालूम लाया जाता है तथा वहांसे जहाज द्वारा बम्बई होते हुए होता है, कि Larnake देशके मध्यसे अनेक प्रकारके यूरोप जाता है। मध्यप्रदेश में बहेलिया, राजहोड़, मिरिजा, लाक्षाजातथ्य लोहित सागरके पश्चिमोपकुलस्थित कु, धानुक, नहिल और भोई आदि असभ्य जातियां Barbarike वन्दरमें भेजे जाते थे । उक्त प्रन्यकार अलक्तक तथा स्थानीय निम्न श्रेणीके मुसलमान लाक्षा संग्रह कर वर्णका भी ( Lac dye ) उल्लेख कर गये हैं। Aelan- पटुआ लोगोंके हाथ बेचते हैं। लाक्षागृत गृक्ष पल्लव जो कृत प्राणितत्त्वमें ( २५० ई०में , लाक्षाकीटका उल्लेख है। जंगलसे शहर में विक्रयार्थ लाया जाता है, उसको लाना. उन्होंने लिखा है, कि भारतवासी वृक्ष पर इन कीडोंको दण्ड वा Stick lac कहते हैं। महिसुर और ब्रह्मराज्यके पालते थे। कुछ समय बाद वे उन्हें पकड़ कर चूर करते शानस्टेट और उत्तर-बहाविभागमें प्रचुर लाक्षा उत्पन्न और उस चूरको जलमें भिगो रखते थे। इस प्रकार जो होतो है। यहासे लाक्षादण्ड कलकत्ता लाया जाता है। रंग बनता था उससे गैरिक वस्त्र तथा कुत्त आदि रंगते पीछे वहासे यूरोप भेजा जाता है। थे। इसी रंगमें रंगाया हुआ कपड़ा उस समय पारस्य भारतवर्ष की मध्यप्रदेशजात लाक्षाका चैदेशिक राजके पास विक्रयार्थ भेजा जाता था। (Nat. animal वाणिज्य ही प्रधान है। परन्तु बङ्गाल, आसाम थोर Vol 1s. 46 ) गर्सियाका कहना है, कि अरवी वणिक ब्रह्मदेशले उसकी अपेक्षा कही कम लाह देशान्तर भेजी लाक्षाको 'लाक सुमुत्री' कहते थे। अधिक सम्भव है, कि जाती है। देशी लोगोंके व्यवहारार्थ कुछ लाह यहां रह पेगूकी लाक्षा पहले सुमात्राके वाणिज्यभाण्डारमें लाई जाती है। बङ्गालके वीरभूम, छोटानागपुर और उडीसा. जाती हो । उक्त द्वीपके बंदरसे ही अरवी वणिक उक्त विभागमें बहुतायतसे लाहकी खेती होती है। सिंहभूम, द्रव्य खरीदते थे। इस कारण उन्होंने उसका लक सुमुत्री पुरुलिया और हजारीबागसे प्रति वर्ष बहुत-सी लाख नाम रखा था । १३४३ ई० में Della Decima ( 111 365) कलकत्ते आती है। वाकुड़ाके अन्तर्गन सोनामुखी, ने, १५१६ ई०मे Barbosa ने, १५१६ ई०में Corica आदि झालिदा आदि स्थानों में तथा मिरजापुररों लाक्षाका कार अन्यकारोंने भारतीय तथा पेगू, मार्त्तवान और करमण्डल खाना है। उपक्कूलजात लाक्षाका उल्लेख किया है। गर्सियाने १५६३ बङ्गालमें प्रति वर्ष दो बार लाक्षा जमा की जाती है। ई०में पनादि चिपकानेके लिये लाहकी पत्ती तथा अवुल, पहली बार कातिकसे पूस तक और दूसरी बार वैशाखसे फजलने आईन-ई अकवरीमें लाहकी पालिशकी बात। जेठ मास तक। समयके तारतम्यानुसार यह कुसुमी, लिखी है। उक्त सदी में भ्रमणकारी लिनसोटेन ( Lins- ईगीन, वैशासी, जलचाला आदि विशेष विशेष नामोंसे choten) मलबार, बङ्गाल और दाक्षिणात्यकी लाक्षाका प्रसिद्ध है। विषय वर्णन कर गये हैं। वनमे दावानल, अनावृष्टि अथवा अत्यन्त कुहेसा