लवण म्युराशि-रणोद २१९ इति जन । ममुद्र लवण, समुद्रसे निकला हुआ | हो जायगे ।" नुनको यह बात अच्छी तरह मालूम थी। नमक। इसलिये निस समय राक्षसके हाय शल नहीं था, उसी रचणानुरालि (मपु०) ग्वणम्य अम्बुराशि । लवण । समय गवुनने मा कर उससा काम तमाग दिया। देर ममुहका जलसमुह । गण घडे म तुष्ट हुए और उनकी भूरिभूरि प्रशसा कर सवणाम्मस (म • पु.) लवणजल समुद्र । आकासे पुप्पष्टि करने लगे। एवणार ( स०को०) लवणक्षार पारी नमः ! इसके बाद देशाने शत्रुघ्नने ममाप उपस्थित हो उनसे एरणारन ( स ० ० घणयार, पारी नमक। र मांगने पहा । शत्रुमने प्रार्थाना की कि, 'देवयिनिर्मित रवणाय (स • पु०) लमणसमुद्र, खारे पानीका समुद्र । इस लवणासुरको मनोहारिणी मधुपुरी (मधुरा) जिससे ल्यणालय (स.पु.) ल्वणस्य म लय । लवनासुरी शीघ्र ही जनाकीर्ण हो जाय यही वर हमें दीजिये।' 'तथास्तु' कहकर देवगण चले गये। पीछे शबुध बारह घसाइ टुइ मधुपुरी। पीछे यह मथुराके नाम प्रसिद्ध गुहा (रामा० ३४) लवण देखो। वर्ष इसो नगरीमें रह पर अयोध्या लौटे थे। (रामायण अयोध्याका० ७३८४०) एयणाय (स.पु.) महाभारतर्णित पक ब्राह्मण । लपणिमन् (स० ० ) लवणस्य भाव (वर्णदृदादिम्य लवणासुर-पक असुरवा नाम | रामायणमें रिखा है- प्यम् । पा ५॥११२३) इति इमनिच् । ल्वणका भार या सत्ययुगमें दैत्यवश गेला गमसे मधु नामक एक पुत्र घम । उत्पन्न हुआ इम मधुन महादेवका कठोर तपस्या कराव्णोना (सको०) ल्यणोपु उत्तम, संधर लपण, भर पाया था। महादेवकाल पा र मधु बड़ा यर । सेंधा नमक । यह सब नमोस अच्छा माना जाता है। यान हो उठा। किन्तु मधु देरल से दलमान हाने पर | | लघणोत्तमादिचूर्ण ( स० प्रा० ) अश रोग वसा फायदा भी परमार्मिक था, पिसारा कोइ अनिष्ट नहीं करता। पहुचानेवाला एक यौषध । इसके बनानेकी तरकीय- था। इमर बार मधुन पुन तपस्या कर महादेवस सेंधा नमक, चितामूल, द्रजी फरजका वीया, नामकी प्राथना की, कि मुमे एक ऐमा यर दीजिये जिससे यह डार, राका परापर वरावर भाग ले कर चूर्ण कर पोछे बार पशपरम्परागसे रह गाय । रितु महादयो पहा, मच्छी तरह मिला है । औषधका मात्रा २ मासा है। कि यह घर तो नहीं मिल सकता, पर तुम्गरा बहा इसे महेक साथ खासे मशरोग आरोग्य होता है। Pा यह ार पायेगा, इममें मदेह नहीं। (भैषज्यरत्ना मशं रोगाधिकार ) विश्यायसुकी या मनगके गर्भमे कुम्भोनसी स्वणोत्तमादिचण (स. को०) टाशरोगाधिरम की मामकी एक पन्या हु। मधुने कुम्मोनसीस विवाह क्यिा पविशेष । प्रस्तुतप्रणाली से घा नमक, चित्रक, गौर उसाफे गमसे लवण पैदा हुआ। प्रमश लपण पहा । द्रजौ, करजमूल और महापिगुमई मूल, इन सब मूलीफे दुत हो उठा। मधुने जय देसा, किरण पहा दुर्ग, । प्रत्येकका चूर्ण २ तोला ले पर एक साथ अच्छी तरह हो गया, तब यह शोशातुर हो करल उम दे पाशक | चूण परे। इस औषधका परिमाण ८ मासा और अनु सिघारा। ल्यण इस शलपे प्रमावसे विरोषा अयध्य | पान महा है। रोगर्म यह बडा लाभदायक है। हो गया ल्याफे मीपण मन्याचारसे पाडित हो पियों (चक्रदत्त मर्श रोगाधिः) ने रामच की गरण ली। मगयध्यवार रामचन्द्रने इस न्यणोत्य (स. ग्ला०) उरणादुतिष्ठनीति रह-क्या-क । का वध करनेके लिये मरतसे कहा । किन्तु गनुपने स्वय रयणक्षा, स्वारा नमक । उसका वध करनेके लिपे प्रार्थना कानुनको शर्मना पर रणोत्या (म०मा०) ज्योतिमती लता। बामपन्दमे टन्हे हो रघणका बघ परने भेना ! "ल्यणक पणोत्स ( स० पु०) पर नगर । ( राजर० १३१) हाथ जद सकपूर रहेगा, तब तर देरदानादि भी पयों एयपोद ( स० पु.) पण उद्फ यस्य, उत्तरपदस्य नदो सो समफे सामने एटाइपरन मायगे घे मस्मीमत चेत्युदरस्यादा। लापसमुद्र ।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/२१४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।