पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७४९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७.२ कौट इसी प्रकार एशियाके कीटमंस्थानमे अफरीकाका कोटसंस्थान मिलता है। एशिया और अफरीका एक नातीय पिकपिया (मुजुवा ) होती है। ( Ateuchus sanctus )| उमे मिसर देगोय अति पवित्र और मुनक्षण समझते हैं। (The sacred beetle of the Egyptiuns.) a कहते कि उक्त कौट भूमिको उर्वरताका चिडवरूप रहता है । प्रायः पक्षमूस नहीं होते। पवशेषको वह कोषकी भांति हो जाते पथवा टतीय अवस्था (Pupa) पाते हैं। इस अवस्थामें गति रहते भी कीट नहीं चलते फिरते । ( Hemimetabola) श्य श्रेणोके कोट सम्म रूपान्तर प्राप्त होते हैं। शूकता तीयावस्था और पायतन क्रमशः परिवर्तित हो नूतन प्राकार बन जाता है। (Holometabola) उत्क प (), पक्षीके गात्रका कमि, गतपदी ( कानखजरा) प्रभृति कोट प्रथम श्रेणौके पन्त- गंत है। एन्ट्रगीप ( वीरवइटी), मानकमि ( मामका कौड़ा), भिनिवमि ( दीवारका कीड़ा, घिनोहरी) चारकोट (खटमल ), 'धुर (झोंगर), तिलचट, पिपीलिका, गनम (टिडडी) प्रभृति द्वितीय श्रेणीमें पाते हैं। मशवा, मक्षिका, पिङ्गकपिथा ( गुजुवा) प्रभृति द्वतीय श्रेणीके कीट हैं। प्राणितत्वविदने उहतीन पियोंको फिर नाना शाखा प्रशाखावों में विभक्त किया है। उन्होंने प्राजतक १२५६ प्रकारके कोठोंका सन्धान पाया है। भारतवर्ष एवं पूर्व उपहीपादिको भूमि जिस प्रकार उच्च तथा निम्न है और प्रत्येक स्थानमें शीता- तपका जैसा तारतम्य देख पड़ता, उससे उता सकस देशमें कीटोंको नानाविध थेपी, जाति और प्रभेद मिलता है। भारतीय कोटसमूहका जो विवरण देखने में पाता, वह प्रायः एकरूप पाया जाता है। ग्रीष्ममण्डल और ससमण्डलमें समस्त फोटोको जो विमिव जाति और श्रेणी देख पड़ती, उसका गठन प्रमेद इतना मिश्रित रहा कि उनका प्रभेद निर्णय करना दु:माध्य ठह. रंता है। हिमालयकं स्थान स्थान, भारतके दक्षिणप्रान्त और भारतमहासागरीय कई होगों में ग्रीममहलके कोटीको हौ श्रेणी अधिक मिलती है। फिर नपान, दक्षिण-मझिसुर, सिंहल, बम्बई प्रदेश, मन्द्राज, कल- कत्ता, दविणवङ्ग, सिंगापुर, जापान और यवतोपमें सो उक्त श्रेणोके कोटोंके अधिक रहनेको हो बात है। हिमाम्लयके कोटराज्यमें युरोप और एगियाका कोटगठन देख पड़ता है। फिर उसके उपत्यका प्रदेशमें दक्षिणायनको ग्रेणी ही अधिक मिलती है। वहां ग्रोममण्डलको मांति बहुतसे हिंस्र (माम खानेवाले) कीट भी होते हैं। कीटोंके मध्य बहुतोंसे मनुष्यका जो उपकार होता, वह कहने में नहीं पाता। कितने ही उमी प्रकार पनिष्टकारी भी हैं। फिर बहुतसे कोट मर्वस्व नाय कर देते हैं। कितने ही देखने में पति सुन्दर और कितने ही कौतूहलजनक हैं। फिर बहतसे कौडीका पाचार-व्यवहार और वामम्यानके निर्माणको प्रयाली पायर्यजनक होती है। कीटके मो इन्द्रिय रहते हैं। कोटम्त्री गर्मियो होनेसे पुकोट मर जाता और वह डिम्वप्रमव कर मरती है। कोटीके असंख्य सन्तान उत्पन्न होते हैं। जगदीश्वरके राज्य में यदि सब कौटोंके निये नौनेका नियम रहता, तो अकेली कोट पोका स्थान भरनमें ही समय पृथिवीका प्रयोजन पड़ता। वर्ष जिम प्रकार कौट संख्या बढ़तो, वह यदि काटमुक् पक्षी, पशु वा वृक्षलतादि द्वारा विनष्ट न होती तो अनुमान किया जा नहीं सकता क्या हो जाता। यही नहीं कि केवल कोटभुक पशुपक्षी ही विद्यमान हैं। प्रनेत्र कोट मनुष्यभोच्य भी है। यूनानी पहले टिच्डो खाते, जिमे न्य माउथ वेल्मक पादिम समभ्य प्राज मो या जाते हैं। इलियात नामक को ग्रन्यकार कहते हैं कि- सम्भवतःभारत में भी कुछ सोग किमी किमो कोटदै डिम्बसे सद्यप्रसून धावक निकास खा डानते हैं। जामेकाशापर्क काफिर दुगङ्गा (Bugong Butte a