1 किरातादि-किरातार्जुनीय किरातादि (सं० पु०) वातपित्तन्चरका कषायविशेष, मृर्वामूलका काथ ८ मेर, नाचाका काय ८ मे, दुखारका एक काढ़ा । कि राततिक्त, पमृता, द्राक्षा, कानिक ८ सेर और दहीकी मन्हाई मर ३४ मेर प्रामसकी और शटीका क्वाथ बना गुहके साथ पीने जनमें पका १६ सेर प्रवशिष्ट रखना चाहिये। फिर पर वातपित्तज्वर छूट जाता है। इसको चतुर्भद्रक चिरायता, गजमिप्यनी, राना, कुष्ठ नाना, इन्द्रवारुपो- भी कहते है । (भावप्रकाश ) फिर किरातादि-किरातक, मून, मष्तिठा, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, मूर्वामृच, यठो. महानिम्ब, कुसुम्बुरु, शतावरी, पटोल, चन्दन, पद्म. मनु, मुस्ता, पुनर्नवा, मैन्धव, जटामांमी, वृहतो, विट शाल्मली और उदुम्वरोजटासे भी बनता है । (रम न्नवण, वान्तक, गतमृनी, रतचन्दन, बटुकी, अनुगन्धा, चन्द्रिका ) अन्य किरातादि-किरात, नागर, मुस्ता और गतपुप्या, रेणुक, देवदार, वेग्णामृन्द, प्यक छ, धान्यक, गुडुचीके योगसे बनाया जाता है। वातवर में किरात, विप्यनी, वचा, शटी, विफला, यमानी, बनयमानी, मुस्ता, गुरूंचौन, वाना, वृहती, कण्टकारी, गोक्षुर, कर्वटगृङ्गी, गोक्षुर, , गानपणी, चक्रमर्द, दन्तीमून, शालपर्णी, पृश्निपर्णी और शुण्ठी प्रत्येक १६ रत्ती ३२ विडङ्ग, कोरक, कान्द्रकीरक, महानिम्वत्व, वुमा, तोले जल में पकाकर ८ तोले रहनसे पीते हैं। कण्ठकुन्न: यवक्षार और शुण्ठो प्रत्येक ४ तोन्दा परिमाएम सन्निपातमें चिरायता, क्को, पिप्पती, कुटज, कण्ट व कार्य डान तैन प्रस्तुत करते हैं। यह तैन लगनिमे कारी, पटी, विभीतक, देवदारु, हरीतकी, मरिच, मकन्न प्रकार विषमज्वर, सोहान्बर, शीघयुन, बर मुस्ता, कटफन्त, अतिविषा, प्रामलको, पुष्करमून, एवं प्रमेहचर मिटता और पन्नि, वन एवं वीर्य चित्रक, कर्कटगृङ्गी, और वामकका २ तोले क्वाथ बना बढ़ता है। प्राध तोन्ता शुण्डो डान्तकर पोर्नसे नाम पहुं. किरातार्जुनीय ( म० लो०) किगतय चुनच त्यो चता है। वृत्तमधिकृत्य कृतम्, किरात-अर्जुन छ । भारविश्ववि किरातादिचूर्ण (सं० को०) चूर्ग विशेष, एक फूफ । प्रणीत एक महाकाव्य । साधारणत: नीग टहा कायको चियिता, विता, वाव्यान्नक, पिप्पली, विडङ्ग, 'भारवि' कहा करते हैं। दुर्योधनके माघ शु तक्रीडामें कटुकी और शुण्ठी सबका सम भागसे चूर्ण बना मधुके पगनित ही युधिष्ठिर प्रभृति माता वनमें रहते साथ सेवन करने पर दुर्जलदोपच्चर शान्त हो जाता थे। उसी समय व्यासदेव उनकै निकट नाकर उपखित है। (भावप्रका) इये। पाण्डवको दुर्योधन के पक्षको अपेक्षा अधिक किरातादितैन (सं० ली.) विशेष, एक तेम्म । बलशाली बनाने के लिये उन्होंने अर्जुनको परामर्ग मूच्छित कटुतैस ४ शरावक, दहीको मनाई ४ गरा दिया-'तुम तपस्या हारा टेवगणके निकट अस्त्र वक, कानिक ४ शरावक तथा किराततिक्त काथ गे।' नुसार चुन हिमान्यपर्वक ४ शरावक एक साथ पकाने और उसमें मृर्वामुन्न, निकट प्रथम इन्ट्रको तपस्या की थी। इन्द्रने उमस नामा, हरिद्रा, दारुहरिट्र, मनिष्ठा, इन्द्रवारुण, कुष्ठ, परितुष्ट हो पर्जुनको शिवधी तपस्या करनेके लिये वाचक, राम्रा, गजपिप्यसी, विकटु पाठा, इन्द्रयव, उपदेश दिया। फिर वह महादेवको ही तपस्या करने सैन्धव, सचन्त लवण, विटलवण, वासात्वक, खेतार्क लगे। महादेव उनकी तपस्याले सन्तुष्ट हुवे थे। किन्तु मूलत्वक, श्यामासता, देवदार और महाकालफलका वे अर्जुनकी वीरताको परीक्षाके लिये किरातके मिलित १ शरावक कल्का मिला पकानसे उक्त तैन्न वैशमें एक प्रकाण्ड वराहक पोछे पोछे वहां जाकर प्रस्तुत होता है। किरातादिल लगनिमे नाना ज्वर उपस्थित हुवे । वराहने निकट पहुंचते ही अतुं नको पारोगा होते हैं। पाक्रमण किया था। सुतरां उन्हें भी उसके प्रति वाण वृहत् किरातादितेल इस प्रकार बनाया जाता चन्नाना पड़ा। किरातवे महादेवन भी प्रर्जुनके ई-कटुते ल ८ सर, चिरायतका क्काघ १२५ सेर, वाणघातकै माघ अपर वाण निक्षेप किया था। उभय के
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७३५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।