६६२ काश्मीर साहाय्य लिया और शोत बीतते ही युद्धको गमन के मध्य कन्दमू काश्मीरको नौटे। हर्षदेवने प्रानन्दमें किया था। किन्तु पथिमध्य गनित तुषारसे आच्छन्न सिंहासनसे उठ कन्दको सम्वर्धना की थी। दुष्ट मन्त्री हो स्वयं उन्होंने अपना प्राण छोड़ा। कन्दपंका वह सम्मान देख मिहामनमे जल उठे। हर्षने फिर सकन्न वाधा विपदसे मुक्त हो राज्यको कन्दप उसके पीछे परिहासपुरके गामनकर्ता हुवे । उन्नतिमें सन लगाया था। उन्होंने काश्मीर में परि कुपरामर्शसे इपंटेक्ने उमी ममय कन्दपको हारपति- च्छदादिका उत्कर्ष साधन और कर्णाटो मुद्राके प्राकारमें को पदसे इटा लोहरराज पटपर बैठाया था। कन्ट्य मुद्राका प्रचार किया। वह पण्डित-प्रतिपालक रहे। सन्तुष्ट चित्त वहां चले गये। मन्त्रियोंने देखा कि कन्न सके राजत्वकाल वितण नामक किसी पण्डितने कन्दर्पने गजाके विरुद्ध कुछ कहा न था । उसोम काहीर छोड़ कर्णाट राज्यमें जाकर महा सम्मान उन्होंने रानाको बताया कि कन्दपं नाते समय उत्कर्ष - और विद्यापति उपाधि पाया था। वह हर्षको गुणा के पुत्रदयको अपने माय ले गये थे। वह उनको वली सुन शेषको सहाक्षुब्ध हुवे । इर्षने काश्मौरकी ले कर स्वाधीन हो जाना चाहते थे हर्ष देवने हठात् राजधानी सुदृश्य वस्तुसमूहसे सजायी थी। उन्होंने उम मिप्यावाक्य पर विश्वासकर अमिघर और पट्टको एक प्रमोद उद्यान निर्माण करा उसमें पम्या नामक भेज दिया । कन्दप उक्त संवाद सुनकर मर्माहत हुवे । सरोवर खुदाया और नाना देशविदेशक पची संग्रह कर किमो दिन वह चौपर खेल रहे थे। उमौ ममय उसमें प्रतिपालनका प्रवन्ध लगाया । उनकी पत्नी साही प्रसिधर पहुंच उन्हें बाँधनपर उद्यत हुवे। किन्तु राजकुमारी वमन्तलेखाने राजधानी और विपुरेखर वीर कन्दपके दृढ़ रूपसे पकड़ते ही उनका हाथ टूट में मठादि बनाये थे। गया प्रमिधरने पलायन किया था। पफिर अग्रसर हर्ष के समय भुवनराजने नोहर अधिकार करनेको हुवे । कन्दप ने कहा-"पाप राजाके प्रात्मीय हैं। चेष्टा लगायो । वह सैन्य ले कोटा पहुंचे थे। किन्तु हम आपके विरुद कुछ करना नहीं चाहते । श्राप हारपति कन्दपके आगमनको वार्ता सुन भुवनरान | दुर्ग अधिकार कीजिये । हम चरते हैं।' कन्दर्प युइसे विरत हो गये। उसोसमय राजपुरोके राजा काशी चले गये। कन्दर्प के चने जाने पर अन्यान्य संग्राम बिगड़े थे । कन्दर्प उस समय भी कोटामें ससैन्च मन्त्रियों में गड़बड़ पड़ गया । राज्यमें विक्षमा उपस्थित थे । हर्षदेवने उससे दण्डनायकको लगी थी। धम्मट जयराजको उत्तेजित कर स्वयं सेना हे भेजा था, किन्तु वह भी लोहरके पथसे राज्याधिकारको चेष्टा करने लगे। जयराज कनमके नाते जाते कोटा में सरोवरको शोभा देख कुछ दिन औरसनात तो थे, किन्तु वेश्यागमंजात होनेमे धम्पाटके वहां हर गये। सन्दपं अपने विलम्बके लिये हर्ष -परामर्शमें हर्षदेवको मारडानने पर स्वीकृत हो गये । देवक कोपभाजन हुवे । पोछे हर्ष का अभिप्राय समझ प्रयाग नामक मृत्यके नाना कौगलसे राजाको मब बात उन्होंने प्रतिज्ञा को यो-“इम राजपुरा जोतकर हो | मालूम हो गयी। वह जयराजको मार धम्मटके उच्के अन्न ग्रहण करेंगे।" दण्डनायकके मैन्यदलसे कुखराज ढका उपाय ढूंढने लगे। शेषमें उन्होंने कम्मराउके नामक किसी सेनानीने उनका अनुगमन किया। द्वारा उन्हें इन्दयुद्दमें विनाशकर उनके रिक्षण और ३०० मात्र सैन्ध ले कन्दपं विपक्ष ३०६जार सैन्य. सहण नामक पुत्रदयको अपने अधीन रखा । ११ से युद्ध प्रवृत्त हुवे । ३ प्रहर युद्ध होने पीछे राजयुरी प्रभृति धम्मटके भातुष्पु त्र और उत्कर्ष एवं विजयमहके भरे थे। कन्दप ने उस युइमें अग्निमय नाराचास्त्र व्यव पुत्र इर्ष देवकट क गोपनमें निहत हुई। हार किया। उसके पीछे दण्डनायक युद्ध स्थनपर जा हलधरके पौत्र नोष्ट्रधरके परामर्ष से हर्षदेवका विषच पक्षका हतसैन्य देख भयभीत हो गये। नयी मस्तिष्क विगड़ा था। वह एक एक कर देवमन्दिर कन्दपने हँसकार उन्हें अभय दान दिया था । एक मास- लूटने नगे । केवन राजधानी, यौरणसामी और
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