। . काश्मीर खगेन्द्रकै पीछे तत्पुत्र सुरेन्द्रने सिंहासमारोहण समय प्राचीन श्रीनगरमें ६ लाख मकान थे। उन्होंने किया । सुरेन्द्र साहसी, निर्मलचरित्र और विनयी नोविजयेशदेवके * मन्दिरको चतुर्दिक का ध्वंसपाय उन्होंने दरददेशक निकट रकमामक नगर स्थापन वहिप्राकार तोड़वा नूतन निर्माण करा दिया। फिर और उसमें "नरेन्ट्रभवन" नामक एक सुन्दर प्रासाद अशोकने शौविजयेश देवके मन्दिर प्राङ्गणमें "पयो- निर्माण किया । मके कोई सन्तान न था। केखर" नामक एक प्रासाद भी बनाया था। उनके पक्ष महाराज सुरेन्द्र के परलोक जानसे गोधर नामक .वयसमें म्लेच्छों (शको वा ग्रोको') ने काश्मीर गन्ध कोई भिन्नवंशीय गमा बने। उन्होंने ब्राह्मणोंको घधिकार किया। महाराज प्रशोकने शेष दशापर हस्तिशाला नामक ग्राम दिया था। ईवरको सेवामें अपना काल बिताया। गोधरके पीछे सत्पुत्र सुवर्ण राज्याभिषिक्त हुये। अशेकके पोछे तत्पुत्र जलोका राजा बने । वह वह बड़े दानशील रहे । उन्होंने कराल नामक स्थानमें बड़े शिवभक्त थे। उन्होंने पिव-गृगौम चौहमत ग्रहण सुवर्णमणि माता खनन कराया था। नहीं किया। जलोकने समुद्रतट पर्यन्त पीछे पड़ सुवर्णके पीछे तत्पुत्र जमकने गज्य पाया। उन्होंने म्लेच्छ शत्रु वोको देशसे निकाला था। मनु वोका परा. विहार और जालोर नामक अप्रहार स्थापन किया था। जय कर उन्होंने एक स्थल पर शिखाबन्धन किया। अनकके पीछे उनके पुत्र शचीनर पर राज्यभार वह स्थल "उन्नडिख" नामसे प्रसिद्ध है । जलोकने पड़ा। वह उन्नतममा और क्षमावान् नरपति थे। वर्णाश्रमाचारको पुनः चलाया था । उनके समय उन्होंने समाजसा और अथनार नामसे दो अग्रहार काश्मीर राज्य धनधान्यथाही हो गया। उन्होंने राज स्थापन किये। वह निःसन्तान रहे। कार्यको सुम्पृङ्खला स्थापन कर कोषाध्यक्ष, प्रधान शचीनरके पीछे उनके पिटव्यपुत्र शकुनिप्रपौत्र | सेनापति, दूत प्रमसि कर्मचारियोका पद संस्थापन भशोक राजा हुये । धइ यौहधर्मावलम्बी थे। उन्होंने किया। जलोकने वारवन नामक पाश्रम और उनकी शुष्कलेव पौर वितस्तात्र नामक स्थानमें अनेक सूप पत्नी ईशानदेवीने तोरणहार तथा अन्यान्य स्थलमें निर्माण किये। वितस्तानपुरके पन्तत धर्मारण्य माटका मूर्तिको प्रतिष्ठा कर बड़ा सुयश पाया था । विहारमें पशोकने एक अति उच्च चैत्य बनाया था। महाराज जलोकसे सोदरतीर्थ भी प्रचारित हुवा। तीर्थ- उसकी किसीको देख न पड़ती थी। प्राचीन श्री- याची वहां और अन्यान्य जगह जाते रहे। सौदरतीर्थ की नगरीय प्रयोक कलंक स्थापित है। कहते हैं कि उनके नन्दीशमूर्तिकी भांति उन्होंने प्राचीन श्रीनगरमें ज्येष्ठ रुद्र नामक शिवलिङ्ग प्रतिष्ठा किया और तत्सन्त्रि- नदीक वामतौर सस्त-मुखमानसे । कोस दक्षिण अवस्थित है । पान हित स्थानका नाम मोहरतीर्थ रख लिया | नन्दीदेव- मो प्राचीन देवमन्दिर पीर पूर्व सामशेष हष्ट होता है। की चतुर्दिक्का प्रस्तर-प्राचीर उन्होंने निर्माण कराया समसष (राजमणिपो १०)-विद्यपी विकमारपरिवम खुन था। फिर जलोक द्वारा ही नन्दोक्षेत्र में शिवभूतेश लिङ्ग सुप 'बोनमुख' नामसे उक्त या है।(विक्रमारचरित ११) स्थापित हुवा । भूतेश मन्दिरको देवसेवा लिये उन्होंने -इसका वर्तमाम माम 'शु नमो ई। घुनमुष ग्रीनगरी ३ वीस उत्तर-पूर्व यथेष्ट पर्थ दिया था। कहा जाता है कि उन्होंने प्रथम अवस्थित है। उसके निकर पारतीय और सुवनसरोकुस विद्यमान है। शुभमोके निकट भवन मामब एक शूद्र पाम है। विडयने इसौला एक चौहमठ मष्ट किया था। उसके पीछे अलोकने -नाम 'जयवन' लिखा। • योगगरो-वर्तमान यौनगरसे भिन्न यौ। उसका दूसरा नाम पुरावेहत मदीक यामवीर यस मान रामधामोसे साठेवारस कोस निस स्थानपर वित्रयेशमन्दिर था, पानकल उसका नाम विशवारा पापिठान था। वर्तमान पाये थन नामक धानमें पादौन मौनगरी दचिपूर्व अवस्थित है। बसौ धौ, पूर्व को एक नगरो सख-सुलेमानसे पातायोक पर्थात् पञ्चकूट + भान भी सख्त मुखमाग पहाड़मैं श्येष्ठरुद्र नामक शिवलिङ' और उस से कादर भगोक प्रतिष्ठित पशोकश्वर मन्दिरका साथ शेषदेख पड़ता है -पात विस्त त था।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६६८
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