पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६६०

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काश्मीर नसः पिङ्गल पक्षीका शिकार है। उहिडाल सकच नदी कागजो बदाम कहते हैं। वह खाने में प्रति सुखाटु में होते हैं। समका चर्म बहुमूल्य विकता है। कृष्ण लगता है। अंगूर १८ प्रकारका होता है। उनमें -वार प्रदेशमें स्याही (शक्षको, खार पुशत) रहती है। साहबी पौर मुष्की अति उत्कृष्ट निकलता है। अपने सरीसप बहुत देख नहीं पड़ता। विषाक्त सर्प बहुत देशके कुम्हड़े और कद्द की तरह काश्मोरमें पति होना- -कम हैं। कैवल मध्य मध्य दी एक गोह देखने में आ वस्थ लोगोंके भी प्राङ्गणमें अंगूरके माचे गढ़े रहते हैं । जाती है। अंगूर अधिकतर प्रचुर और सुस्वादु होनेसे काश्मीरी शिकरा, वाज, चील, शकुनि प्रभृति मांसाशी पक्षी गर्व कर कहते हैं-"यदि ईश्वरके मुख होता, तो हम - यथेष्ट है । मुनाल, कमिज, कोकिला, कोयल, मैना उसे स्थानीय रोटी और अंगूर खिला सन्तुष्ट कर ममृति सकल प्रकारके तोते, और कठफोड़ कामोर. सकते।” कृषिजात द्रव्य के मध्य काश्मोरका कुगुम. में बहुत हैं। जलचर पक्षी नाना प्रकार हैं। वह पधि- (केसर, जाफरान ) पति उत्कृष्ट होता है । वहां -कांश शरत् पौर शीतकासको उत्तरसे काश्मीर जाते यथेष्ट उत्पन्न होनेसे कुकुमका नाम ही 'काश्मीर' है। और वसन्तके पूर्व लोट पाते हैं। बुलबुल, सारस और शुतुपरिवर्तन-काश्मीरका ऋतुपरिवर्तन बहुत सुन्दर .. बगले (धक) सर्वदा देख पड़ते हैं। काश्मीरके काक है। नलवायु, प्राकृतिक शोमा और पुष्टि एवं वप्तिकर कुछ खेतवर्ण हैं । उनका स्वर बहुत कर्कश 'द्रव्यादिके लिये काश्मीर भूस्वर्ग कहाता है । वसन्ता- नहीं होता। गोसकल खर्वावति और कृष्णवर्ण हैं। गममें नव वरफ गलने लगता तब शोभाका पार उनका दुग्ध प्रति पुष्टिकर होता है। काश्मीरमें नहीं पड़ता। गीतके तुषारमण्डित वृक्षादि तुषारा- -मच्छर, मक्खी और पिस का बड़ा उपद्रव है। फिर वरण छोड़ पद्ममुकुलसे भूपित हो जाते हैं। जिस श्रावण और भाद्र मासमें वह बहुत बढ़ जाता है पोर चक्षु घुमाइये, उसी पोर देखिये कि पवशून्य कापि चोर छवित-काश्मीरको भूमि अति उर्वरा है । तरुवर पुष्पपरिच्छदसे प्रावृत है । ( काश्मीर में पहले जिस जिस स्थल में बरफ नहीं गिरता, वहां भी खभाव फूल खिलता, फून सूख जानेमे पत्ता निकलता है।) जात शस्तूत, अखरोट पौर बादाम काफी उपनता है। फिर जितने दिन शिशिर नहीं पड़ता, उसने दिन -पाइन ( देवदारु, चौड़) पन्य वृक्षके भांति उसना नयकुसुमित अथवा नवपावित वृक्षसतासे वसन्त दृढ़ नहीं होता। किन्तु काश्मीरी सीसे घर और विराज करता पर्थात् वैशाखसे कार्तिक पर्यन्त सात नौकादि प्रस्तुत करते हैं । उसका काठ तैनात होनेसे मास वसन्तका अधिकार रहता है। पीतकालमें जिस -डावा ले जानेमें व्यवहत होता है। पथिक रातको उस परिमाणसे घरफ गिर जाता, उसीके अनुसार भीघ्र वा की छोटी छोटी काष्ठका जम्मा पावत्य प्रदेशमें मथाल विलम्बसे वसन्त पाता है। गौतम अल्य बरफ गिरने- का काम निकालते हैं। देवदार, शाल प्रभृति बहु से चैत्रमासके पूर्व ही वह गल चुकता पौर बसन्तका मूख्य काष्ठके पेड़ यथेष्ट है । कामोरसे बाहर आता समागम लगता है। फिर यदि अधिक बरफ पड़ता, -काष्ठभेजनका निषेध है। धान्य प्रधान खाय है। तो समस्त चैत्रमास गला करता है । मुतरां वैशाख काश्मीर में भारतवर्षका सकल प्रकार शस्य और शाक मास बसन्तागम होता है। कहते हैं कि एक समय उत्पन्न होता है। बैगन लाल और गुलाबी उतरता जहांगीर बादशाह कार्यानुरोधसे बसन्तके प्रारम्भमें है। फल में सेब, नासपाती, विही, गिलास, कोतरनाल, काश्मीर जा न सके । सुतरां उन्होंने काश्मीरके कर्म- -गोमा, बग, शहतूत, अंगूर, अखरोट, बादाम, चारियों को लिख दिया-"ऐसा कौजिये जिसमें वसन्त भाड़ प्रभृति कई प्रकारके सुखादु फल उत्पत्र होते कामोरो रोटीको जितनो प्रशंसा करते वास्तविक उसनौ पच्छो है। बादाम चार प्रकारका होता है। इनमें एकका बना नहीं सकते। किन्तु मौसके नाना विष न्यधन कमानम उनके मुख्य विसका कागजको भांति पतला रहता है, इसीसे उसे जगत में कोई नहीं होता।