काशी कांपते कांपते गारीका शरण ले कहा था कि 'प्रति काशीसे अदूर वर्तमान रामनगरमें न्यासकाशी है । प्रष्टमी और चतुर्दशी तिथि को उन्हे उक्त क्षेत्रमें प्रवेग हिन्दूवोंके विश्वासानुसार जैसे काशीमें मरनेसे मानव शिवत्व पाता वैसे ही व्यासकाशीम शरीर सोडनेमे करनेको अनुमति मिले।' टेवीके अनुगेवसे महादेवने वही स्वीकार कर लिया। उसी समयसे व्यास क्षेत्रके गर्दभ बन जाता है। इसीसे अनेक लोग ध्यासकाशीम बाहर रह दिवारात्रि कागोको निरीक्षण और प्रति मरमा नहीं चाहते। काशीखण्डमें लिखा है-" वेदव्याम विष्णुसे अष्टमी तथा चतुर्दगो तिथोको क्षेत्र में प्रवेग करते विश्वेश्वरकी अपार महिमा सुन काशीमें वास करने है। साधारण लोगों के रिश्वासानुसार रामनगरमें लगे। वहां वह व्यासासन पर बैठ प्रत्यह शिष्यवर्गको आज भी यासदेव अपेक्षा करते हैं। उन्होंने लोगों की काशीमहिमा सुनाते थे। किसी दिन महादेवन वेद मुक्ति के लिये वहाँ एक तीर्थ बनाया था। माघ मास व्यासको परीक्षा लेने के लिये भवानीको बुलाकर प्रादेश इस तीर्थ में स्नान करनेसे मानव कभी गईभ जन्म दिया-'अन्नपूर्णे! पाज ऐसा कोजिये जिसमें वेद. नहीं पाता | नाना स्थानसे याची उस तो में स्नान करने जाते हैं। व्यासको कोई भिक्षा न दे। सुतरां उम दिन वेदव्याम रामनगरके दुर्गमध्य नदीको ओर कापिराजपति- को किसीमे भिक्षा मिनी न थो। जब नाना स्थान ठित वेदव्यासका मन्दिर बना है। घूम वेदव्यासने देखा किसीने भिक्षा दी न थी तब व्यासकागोमें काशिराज-पमिष्ठित अन्य भी अनेक उन्होंने अतिशय क्रुद्ध हो काशीवासोको अभिशाप देवालय पोर देवप्रतिमा हैं । उनसी गठन-प्रणाली दिया--'यहाँक अधिवामी सुतिके गवैसे मिना नहीं देते हिन्दू शिल्पको परिचायक है। प्रतएव इस काशीमें वै पुरुषी विद्या, वे पुरुष धन और मानमन्दिर-पुण्यधाम वाराणसी हिन्दूर्वोका प्रधान त्र पुरुषो मुक्ति न होगी।' इसप्रकार पभिशाप दे तीर्थ है सही, किन्तु उसमें साधारण ज्ञानपिपासुके उन्होंने आकाशकी ओर मनोदुःखसे प्रांख उठाकर भी देखने योग्य अनेक वस्तु हैं। उनमें अम्बरपति मान- देखा कि सूर्यदेव अस्ताचलको जाते थे । उससमय क्या सिंह-प्रतिष्ठित मानमंदिर स्वदेशी क्या विदेशी प्रधान २ करते । क्षोभये भिक्षापात्र दूर फेंक व्यासदेव प्राथमकी ज्योतिर्विदमात्रको अवलोकन करना चाहिये । उक्त ओर अग्रसर हुये। वह गृह जाते जाते एकके सन्मुख मानमन्दिर भी इस वातका एक परिचायक है। किसी पहुंचे ही थे कि भवानीने प्राकृत स्त्रीवेशसे हारपर काम हिन्दूवान ज्योतिर्विद्यामें वाहां तक उत्कर्ष खड़े होकर कहा-'हे भगवन् । हमारे पति विना लाम किया था । अम्बरराजवंशीय मवाई जयसिंह अतिथि सत्कार किये भोजन करना अनुचित समझते ने मानमन्दिरके मध्य नक्षवादिको गति ठहराने को हैं। अब तक हमें कोई नहीं मिना। इसलिये आप जो सकल यन्त्र प्रस्तुत कराये उन्हें देख चमक त अतिथि हो। वेदव्यास उनके घरमें सशिष्य अतिथि होना पड़ता है। दिल्लीश्वर मुहम्मद नानको अनुमति- हये । उम ममय भवानीने नाना प्रसङ्ग में उनसे पूछा से नाक्षत्रिक गति समुदय शुद्ध करनेलिचे जयसिंहने था-'जो व्यक्ति अपने दुर्भाग्यक्रमसे स्वार्थशाभ प्राचीन पार्य ज्योतिष साहाया 'जयण्याश' 'राम- कर न सकते परमोधर्म शाप देता, वह शाप किसको यन्त्र' और 'सम्राट्यन्त्र' नामरो तीन यन्य सदावन किये लगता है। वेदव्यासने उत्तर दिया-वध शाप इस थे। शेषोक्त यन्त्रका व्यासाधै प्रायः१२ हाथ होगा । अविवेचक शापदाताके ही पति होता है। फिर गृह राना उन्ता यन्त्र के बन्न पायात्य ज्योनिविद् विपार्कास, स्वामी भगवान् विश्ववाने कहा-'जी व्यक्ति काशीकी टलमि प्रभृति प्रदर्शित युक्तियों में भम प्रदान कर सके समृधि देख नहीं सकता, उसे इस स्थान में पाप लगता एसभित्र जयसिंहके आविष्क त भित्तियच, चक्रयन्त्र है। तुम अब इस स्थान में रहने के योग्य नहीं यौन ही 'प्रभृति दूसरे भी कई यन्त्र मानसन्दिरको मध्य विद्य- चत्रसे बाहर निकल नावो।' वह बात सुन व्यासने मान है । नयमि' देखो। Vol. IV. 164
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