पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६४६

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देख पड़ता काशी त्रिशोचनघाटसे पश्चिम कमिश्वर प्रभृति प्राचीन रामघाट पड़ता है। वहां भी विस्तर देवालय हैं। राम- घाटके दक्षिण जैनमन्दिरघाट है। वहां जैनमन्दिर में शिवलिङ्गक अनेक मन्दिर हैं। उक्त प्रायः सकस मंदिर- पार्श्वनाथ प्रभृति जिनमूर्ति हैं। उसके दक्षिण प्राचीन का वर्ण लोहित पौर क्षुद्र क्षुद्र धूड़ा है । काशीखण्ड- पग्नितीर्थ (वतमान अग्नीखरघाट) है। अग्नितो. के मतमें-देव कामेश्वर साधुगणको कामना पूर्ण करते के तौर पग्नीश्वर मन्दिर व्यतीत दूसरे भी अनेक हैं । भक्तांछा पूर्ण करने के लिये भगवान् लिङ्ग लोन देवालय हैं। हुए हैं। उसीसे स्वीन नाम पड़ा है।" त्रिलोचनघाटके निकट पादि महादेवका एक (कामोखष २०११-१२) खतन्त्र मन्दिर है। उस मन्दिरमें प्राचीन व्यासासन उसीके निकट प्राचीन मत्स्योदरी तीर्थ था । शिक । प्रवादानुसार उक्त प्रासन पर बैठ वैद. पुराणादिमें उक्त प्राचीन तीर्थ का उल्लेख है। काशीखण्ड- ध्यास वेदपाठ करते थे। वहां पाषाणमयी पार्वतीश्वरी के मतानुसार मत्सयोदरी तीर्थ में स्नान करनेसे मानव की प्रतिमा है। पूर्वतन पातेश्वरीका मन्दिर फिर गर्भयन्त्रणा भोग नहीं करता। उक्त तीर्थका पाव विनिष्ट हो गया था। गौरजी नामक एक विख्यात कल चित्रमाव नहों मिन्नता । प्रायः ८० वर्ष पूर्व गुजराती ब्राह्मणने काशीखण्ड पानुपूर्षिक पढ़ किसी साइवने उसका सीप कर दिया था। पहलेवर्ग प्राचीन देवमूर्ति और तीर्थ सकनको उहार करनेकी अनेक तीर्थयात्री स्नान करने जाते थे । किन्तु तीर्थ चेष्टा लगायो। उन्होने प्राचीन पातेश्वरीकी प्रतिमाका लोपके साथ यात्रियों की संख्या भी घट गयी है। अनुसन्धान न पा उसके स्थानमें वर्षमान प्रतिमा काशीके बंगाली-टोलामें केदारप्रवरका मन्दिर है। प्रतिष्ठा की है। काशीखण्डमें केदारेश्वरकी उत्पत्तिके सम्बन्ध परंसिखा पञ्चगङ्गाघाटका पपर नाम पञ्चनद वा धर्मगद है-उज्जयिनी में वशिष्ठ नामक एक ब्राह्मपतनय तीर्थ । कायोखण्डके मतमें-धर्म नदमे धूतपापा, रहे। वह हिमालयस्थ केदारेश्वरके उद्देशसे यात्रा कर किरणा, सरस्वती, गङ्गा और यमुना पांच नदी जाकर काशी पहुंचे। वहां उन्होंने प्रतिज्ञा को थी-'इम जब मिली हैं। इससे उसका नाम पञ्चनद है । राजसूय तक जीते रहेंगे, प्रति चैत्रमास केदारेश्वरके दर्शनको और अश्वमेधके अवभृथकी अपेक्षा. पचनदतीर्थ में यात्रा करेंगे। फिर उन्होंने ६१ बार केदारेश्वर दर्शन स्नान करनेसे शसगुण अधिक फल लाभ होता है।" किया। बहुकाल पर वशिष्ठने पूर्ववत् केदारेश्वरके (काशीखण, ५२ १११-११५) दर्शनार्थ सकल्प किया, किन्तु पति हह देख संहचर पानकल केवन गङ्गानदी दृष्ट होती है । साधा- रण विश्वासके अनुसार दूसरी चारो नदी भूमिके मध्य गणने उन्हें जाने मना किया। तथापि हदका उमाहटूटा पन्त:सलिला बहती हैं। नया । उन्होंने स्थिर किया कि राहमें मरना भी अच्छा वहां मङ्गलागौरी और विन्दुमाधवका मन्दिर है। परन्तु केदारेश्वरके दर्शनको अवश्य चलेंगे। उनके पांच- काशीखण्डके कथनानुसार-पचनदतीर्थ में स्नान कर रणसे केदारेश्वरने स्वपमें दर्शन दे कहा था-'हम विन्दुमाधवको दर्शन करनेसे मनुष्य फिर कभी गर्भ तुम्हारे अपर सन्तुष्ट हुये हैं। पर मांगो।। वासयन्त्रण भोग नहीं करता । उसी प्रकार मङ्गला- ब्राह्मण कहने लगा-यदि पाप इमार जपर प्रसंब गौरीको अर्चना करनेसे वन्ध्या स्त्रो भो पुत्र लाभ कर हुये हैं, तो हिमालय पाकर यहां अवस्थान कीजिये। सकती है । ( कामौखण्ड ५६ १०-१२) भगवान्ने भक्त के प्रति सन्तुष्ट हो अपनी कलामात्र उसी स्थान पर हिन्दूविद्वेषी औरङ्गजेवने पुरातन हिमशैलमें रख उक्त स्थान पर जाकर सम्पूर्ण भावसे विन्दुमाधवका मन्दिर चूर्ण करा हिन्दूदेवालयको हरपापजदमें अवस्थान किया। हिमालयको अपेक्षा उच्चता खर्व करनेके लिये बहुत ऊंची मीनारसे सजी काशी में केदारेश्वरका दर्शन करनेसे सात गुणा अधिक एक बड़ी मसजिद बनायी थी। फल मिलता है। हिमालयकी भांति काशीमें भौ गौरा Vol. 1 IV. 163