पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६४४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। काशी उसके भागे सूर्यकुण्ड या साम्बादित्य है। काशी कार्यादेवी मन्दिरसे कुछ उत्तर भूतभैरव वा खण्डमें वर्णित है, विश्वखरकी पश्चिमदिक् जाम्ब विषम भैरवका मन्दिर है। भूतभैरवका मूर्ति भात पती-नन्दन साम्बने आदित्य देवकी उपासना की है। वहां अपरापर देवमूर्ति भी हैं। उनमें अश्वस्थ वृक्ष थी। वह कणके अभिशापसे कुष्ठरोगाकान्त हुये । के प्रकाण्डसे उस्थित वृहत् शिवलिङ्ग ही प्रधान है। सक्त दारुण व्याधिसे मुक्ति लाभके लिये वह काशीमें उसी महमें धारगणेश और नगवाथ देवका जा एक कुण्ड निर्माण पूर्वक सूर्यको आराधना कर मन्दिर है। एक स्थानमें दोसतीको प्रस्तरमूर्ति हैं । शापसे छूटे। साम्बप्रतिष्ठित साम्बादित्य नामक सूयं उभयने पतिका सहगमन किया था । सधवा स्त्रीना विग्रह मतगणको सर्वप्रकार सम्पद प्रदान करता है। कर उक्त दो सतो मूर्तिका पूजा करती हैं। वहां दूसरी सास्वादित्य की सेवा करनेसे स्त्री कमो विधवा नहीं भौ अनेक अङ्गदीन पाषाणमूर्ति हैं। कालवग पथवा होती। माघ मासमें रविवार पर भलमभीका साम्ब मुशलमान उत्योड़नसे उन सकल- देवमूर्तिको वैसी दुई कुण्डको वामरिक यात्रा पड़ती है। उसदिन साम्बकुण्ड शा हुयो है । वहां प्राचीन पिल्पनैपुण्य देख चमत्कत में मान कर साम्बादित्यको पूजनेसे उत्शष्ट रोगभी होना पड़ता है। थान्त होता है" वाराणसौके मध्यस्थल में . त्रिलोचनका प्रावीनं काशीखण्डोक्त साम्बकुण्डका हो वर्तमान नाम मन्दिर है। काशीमाहात्मामें लिखा है-"निस समय सूर्यकुण्ड है। सूर्यकुण्ड के सम्मुख एक क्षुद्र मन्दिरमें शिव ध्यानमें निमग्न रहे, विष्णु प्रत्यह सहस पुष्षसे अष्टाल भैरवको मूर्ति है। हिन्दूषिद्दषौ औरङ्गजेबने उनकी पूजा करते थे। एक दिन विष्णु शिवपूनामें वह मूर्ति अङ्गहीन कर डाली थी। निरत रहे । उसी समय शिवने उनका एक फूल उठा उसी प्रचसमें ध्रुवेश्वरका मन्दिर है। काशीखण्ड रखा। उसके पीछे विष्णु ने पुष्पाञ्चलि देनेके समय एक के मतमें ध्रुपने यह शिवलिन प्रतिष्ठा किया था। एक कर 222 फूल देवोहे शसे अर्पण किये। शेषको वाराणसी एहसानगनमले में विख्यात यागे उन्होंने देखा कि एक फूल न था । किंकर्तव्यविमूढ़ खरका मन्दिर है। उस मन्दिरको चारी पोर माचीर होकर अवशेषको भगवन्ने अपना एक नेत्रकमल है। मन्दिर भनेक देवमूर्ति प्रतिष्ठित हुयी हैं। उत्सर्ग किया। कपोल देशपर वह नेत्र पड़ते ही मन्दिरको कारीगरी अच्छी और देखने योग्य है। शिव तीन नेत्र हो गये और यह त्रिलोचन "मामसे एहसामगंज महले के सबिहिस काशीपुरा मंहले। विख्यात हुये।" में काशी देवीका मन्दिर बना है। वही काशीको अधि त्रिलोचनका वर्तमान मन्दिर पूनाके नाथू वासाने ठात्री देवी हैं। काशी देवी मन्दिरसे अनतिदूर घण्टा बनवाया था, मन्दिर बहुत प्राचीन महौं। किन्तु तत्- कर्ण तालाब है । काशीखण्डके मतमें उसे घण्टाकर्णहद' । स्थानीय सकल देवमूर्ति के प्राकृतिदर्श नसे वह अधिक कहते है । उस इदके निकट चित्रघण्टे शरी. विराज प्राचीन जैसा समझ पड़ता है। काशोखण्डके मता- करती है। दके तौर घण्टाकर्ण नामक गणकटक नुसार-विभुवनके मध्य वाराणसी पुरी ही सपेचा प्रतिष्ठित घण्टाकखर नामक शिवलिङ्ग है। श्रेष्ठ है। उस वाराणसीसे प्रवेश्वर लिङ्ग और उससे मी (काशीषण १३.१२-१५) उता विमोचन लिङ्ग श्रेष्ठ है। मखरने कलिकालमें वि. घण्टाकर्ण इदके तौर वैदव्यासेन्जरका मन्दिर है। लोचनको महिमा छिपा रखी है। (कायोखy coice उस मन्दिरमे वेदव्यासको मूर्ति और तत्प्रतिष्ठित मन्दिरको सीमामें प्रवेश करने पर विविध देव- वैदव्यासेश्वरनिङ्ग विद्यमान है: श्रावण मासमें घण्टा देवी मूर्ति दर्शनसे नयन और मन आशष्ट होता है । कद और तनिकटस्थ मन्दिरके दर्शनको विस्तर तीर्घयानी माते हैं। वहां दूसरे भी क्षुद्रं क्षुद्र मन्दिर हैं । सर्वत्र प्रायः ५.९० वा २० से अधिक शिव और निकटही नन्दिनूर्ति