पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/६३७

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कांची अवस्थित है।वह चूड़ा समेत ३४ रस्त उच्च है। "स्ट्ररुपी थानने त्रिशूल नारा स्थानीय भूमि सनम ठीक समझ नहीं पड़ता किस महामाने उक्त कर एक कूप निर्माण किया था। इस कुडमे पृथिवी मन्दिर बनवाया है । महाराज रणजीत सिंहने मन्दिर अपेक्षा दशगुण जल निकला और उस जनसे भूमण्डन को मेहगव, चूड़ा और मसुदाय कलसके तविपर पाहत हुवा। उस समय रुद्रमूर्ति शानदेवने माय सोना मढ़वा दिया है। सूर्यालीको दूरसे दर्शनकरने कम्नस जल मर ज्योतिर्मय विश्व खररूपी महावित पर उसको अपूर्व शोभासे नयन जल उठते हैं। स्वर्णी को सान कराया था। भगवान् विश्वरने स्ट्रके प्रति ज्वल चूड़ा पर त्रिशूल है । उमौके पार्श्व में पताका प्रसन्न हो निम्नलिखित वर दिया-जो शिव गदका उड़ती है। अर्थ विचारते, वह उसका अर्थ "ज्ञान" वतचाते हैं। विश्वेश्वर मन्दिर की मेहरावके नीचे बड़े घण्टे वही ज्ञान हमारी महिमा यहां जबरूपमें बीमून लटकते हैं। उनमें बड़ा घण्टा नेपालकै राजाका दिया हुवा है । इसलिये यह तीर्थ "ज्ञानोद' नामसे विख्याम है। मन्दिरके उत्तर विश्व खरको सभा है। उस होगा” । * इस तीर्थ स्पर्श करनेसे सपाप दूरीमूत स्थान पर अनेक देवमूर्ति विराम करती हैं। होते हैं। फिर इसके स्पर्श और पाचमनसे प्रम्खमेव उक्त पवित्र देवालयमें प्रवेश करनेसे मनमें अतरसका तथा राजसूय यज्ञका फच मिन्नता है। इसका नाम प्राविर्भाव होता है। पाप देखेंगे कि भारतवर्षक शिवतीर्थ है । फिर वही तीर्थ रामजानतीर्थं तारक- सकल स्थानीय एवं सर्व जातीय हिन्दू भक्तिभावस तीर्थ और प्रकृत मोजतोय मी कहाता है । इम सीर्थक विश्वेश्वरके पवित्र लिङ्गदर्शनको उपस्थित है। मौके जलसे शिवलिङ्गको नान कराने पर सर्वतीर्थका फल सुखसे निस्स 'हर हर हर बंबम विश्वेश्वर' के रवसे नाम होता है। मानस्वरूप हमों यहां द्रवमूर्ति वन मन्दिर प्रतिध्वनित होते हैं। कोई हाथ जोड़ देवादि- जीवगणको जड़ता विनाश और मान उपदेश करते हैं।' देव महादेवको पूजा करता, कोई उदात्तादि स्वरसे (काशेषण, ५.) वेद पढ़ता और कोई सुमधुर स्वरसे शिवस्तोत्र गान कायोखण्डके अन्यखसमें कहा है-"दणनायक कर भलाके हदय में विशुद्ध पानन्द भरता है। धन्य ! उस मानवापीका जल दुत्तगयसे वचाते और भारतवर्षके मामा स्थानीको प्रावास--वनिताका सुधम तथा विधम नामक गएडय दुतगपकी समावेश ! वैसा दृश्य किसी दूसरे स्थानपर देख नहीं भ्रान्ति उपजाते हैं। महादेवको प्रष्ट मूर्तिका जो विषय पड़ता ! भक्त हिन्दुधों की प्रकृत छवि पद्यापि विखे कहा, उक्त मानदायिनी ज्ञानवापी उन्हों अष्ट मूर्तिम खरझमें प्रकाशमान है। जिस समय विवेघर की अन्यतम जलमयी मूर्ति है । (५०५० ) सन्या भारती होती और जिस समय वेदध्वनिसे उदय प्रवादानुमार कानापहाड़के कायोको सकस देव- हिलने लगता, उस समयका दृश्य कैसा प्रयार्थिव मन्दिर तोड़ने जाते समय विवेखर उत ज्ञानवापोके मध्य छिपे ये मान भी सहन सहस्र यात्री वहां देवकी विश्वेश्वर मन्दिरसे अनतिदूर 'ज्ञानवापा' नामक पूजा करने जाते हैं। पवित्र कूप है। शिवपुगणमें उस कूप "वापोजल" जानवापी पर एक कुछ ऊंची इन है। वह छत नामसे वर्णित हुवा है । * काशाखण्ड में लिखा है- पत्थरके ४० खंभों पर खड़ी है। उसका गठन प्रति "पविमुभरं देवं मंसारीङ्गवमोचनम् । मुन्दर है। १८२८ ई. को ग्वालियर महाराज दौश्चत बापोजलन्तु तवस्य देवदैवय सन्निधौ ।। अर्शनार्गनान सम्य बतार्या मानवा भुवि । • "गिब' ज्ञानमिनि अयुः शिवशब्दाचिन्तकाः । दुल मन्त कलौ दिव्यतन धमतीपमम्॥ वसानं ट्वीमतमि मे महिमोव्यात् ।। तारथ' सर्वजन्तूनां नानापापस्य नाशनम् ।" पतोचानोदनामवचीय वैश्वोक्यविश्रुतम्।" (कामीखइ.स.) (शिवपुराण, अनवकमारसंहिवा, १२-२८)