काव्य-काव्यलिङ्ग ऋतु, वन, सागर, सम्भोग, विप्रम्तम्भ, मुनि, स्वर्ण, पुर, | सेनाचार्यको प्रलंकारचिन्तामणि, रुद्रटका कावा- यन, रणप्रयाण, विवाह, मन्त्र, पुत्रजन्मादि महाकाव्य लहार, कुवनयानन्द, साहित्यदर्पण प्रभृति असहार- का वर्णनीय विषय है। इस सकलको यथायोग्य ग्रन्थमें कावाका लक्षणादि और. विस्तृत विवरण स्थानमें सनिवेशित करना पड़ेगा। लिपिवद्ध हुवा है। साधारणतः काव्यमें दो प्रकारके भेद होते हैं। दृश्य (पु.) कवेः भृगोरपत्य पुमान्, कविण्य यज्दा । और अश्य । नो काव्य अभिनयके उपयोगी रहते, ३ शुक्राचार्य, उशना । पारसिकोंके प्राचीन पवंक्षा उन्हे दृश्यकाव्य कहते हैं । यथा-भाटकादि। फिर ग्रन्थमें शुक्राचार्य 'कवठस्' नाममे वर्णित हुये हैं । जो काक्य केवल अषणके उपयोगी पाये जाते, वह ४ तामसमन्वन्तरीय एक ऋषि । श्रव्य कहावे हैं । दृश्यकाव्य-नाटक, प्रकरण, भाग, "नोतिर्धामापृथ: काम्य बोऽनिवल इस्तथा। पौवरय यथा ब्राझन् सप्त सप्तर्ष योऽभवन् ।" (मार्कणेयपु०७४ । ३९) व्यायोग, समयकार, डिम, ईहमृग, अह, वीथी पौर (वि.) ५ कवि वा ऋषिके गुण रखनेवाला, प्रहसन भेदसे दश प्रकार है। श्रष्यकाव्य गद्यपद्यभेदसे जिसमें थायरको सिफत रहे । विविध होता है। पद्यकाव्यके दो भेद हैं-महाकाव्य ६ कविता-सम्बन्धोय, और खण्डकाव्य । गद्यकाव्य भी कथा और पाख्या- शायरीके मुतालिक । यिका भेदसे दो प्रकारका होता है । इसको छोड़ चम्यू. | कावाचौर (सं० पु. ) कावास्य चौर इव । १ अन्ध- विरुद और करम्भक नामक तीन प्रकारका अन्यकाच्य रचित काय, अपमा बतलानेवाला, जो दूसरे को बनायी मिलता है । ( साहिव्यदर्पण) भायरी अपनी बताता हो। २ चन्द्ररेणु । प्रायः समुदाय काव्य प्रतिषणमुखकर, मनी- कावाता (सं० स्त्री०) कावास्य भावः कावा-तन् । मुग्धकर और रसप्रकाशक होते है। इसीसे काव्य पा कावाका लक्षणादि, शायरी बनानेकी शर्त । लोधमा करनेपर अन्य किसी शास्त्र की प्रालोचनाको | कायादेवी (स• स्त्री०) काश्मीरराशी विशेष, काश्मीरशी इच्छा नहीं चलती। किसी उद्भट कविने कहा है- एक रानी। उन्होंने कावादेवीश्वर नामक पिवखि "काम्यन म्यते मात्र कायं गौतेन हन्यते । स्थापन किया था। (राजतरद्विषो ५१) गोतव स्त्रीविलासन स्त्रीविलासो बसचया ।" कावामीमांसक (सं• पु.) कावास्य कावाशास्त्र व काव्यसे मौतशास्त्र, सङ्गीतसे काश्य, स्त्रीविलाससे | मीमांसकः, ६-तत् । कावाशास्त्रका मीमांसाकारक, सङ्गीत और बुभुक्षासे स्त्रोविलास विनष्ट हो जाता है। इलम फसाइतका उस्ताद । काव्यकलाप, अमरचन्द्रक्कत काव्यशल्पसता, काव्य काम- कावारसिक (सं० वि०) कावास्य रस वेत्ति, कावा-रस- धेनु,तौतमविरचित काश्थकौतुक, काव्यकौमुदी, काव्य ठक् । कावावर्णित रसका अनुभवकारी, भायरोका कौस्तुभ, कविचन्द्र एवं विद्यानिधिपुत्र न्यायवागीय- विरचित काव्यचन्द्रिका, रत्नपाणि, राजचूड़ामणि कावासिङ्ग ( सं० क्लो०) अर्थातकार विशेष । इसका दीक्षित, और श्रीनिवास दीक्षितकृत काव्यदर्पण, साहित्यदर्पणोक्त सक्षण इस प्रकार है- कान्तिचन्द्र और गोविन्दरचित काव्यदीपिका, धनिक "सोर्वाक्यपदार्थ वे कावालिाम दाहसम् ।" विरचित काव्यनिर्णय, काव्यपरिच्छेद, भारतीकवि, हेतुका वाक्य और पदार्थत्व अर्थात् वाक्य या विश्वनाथ भट्टाचार्य और सम्मट भकत काथप्रकाश, पदार्थका हेतु रहनेसे कावानिङ्ग अनझार होता है। आनन्दकविकृत काव्यप्रकाशनिदर्थ न, गाविन्द मक्त काव्यप्रदीप, श्रीनिवासरचित काव्य “यखन्ने बसमागकान्ति सलिल मप्र सदिग्दोष सारसंग्रह, दण्डी तथा सोमेश्वररचित काधादर्श मेघरन्तरितः प्रिये तब मु खुच्छायानुकारी गयौ । येऽपि त्वदयमनानुकारिगतयःसे राजहंसा गता- वाग्भट्टका कायद्यानुशासन और कायद्यालङ्कार, जिन- Vol. IV.. स्वत्साहयविनोदमावमपि मै देवेनन क्षम्यते।" शौकीम। रामानक यथा- 154
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