कालो -कालीघाट पर टूट प्रहार करने लगीं। वही देवी काली है। घोर संग्राम हुवा था । फिर युद्ध के पीछे उन्होंके हुङ्कार- उनका रूप चण्डी में इस प्रकार बताया है- से वह विनष्ट हो गया । वह बराबर कौपिकोके "काली करालपदमा विभिप कान्तासिपाशिनी । पाल में उपस्थित रहीं। देवीभागवतसे भी चण्डमुण्ड- विचिवखट्वानाघरा नरमालाविभुषण । वधके समय कोषिकोके कपान्तसे व्याघ्रचर्माम्बरा, दीपिचर्मपरोधाना अष्कर्मासातिभेरवा । क्रूरा, गजचर्मोत्तरीया, सुण्डमालाधरा, धोग, शुष्क- पतिविस्तारवदमा निहाललनमीपण। वापीसमोदरा, खड्गपाशधरा, अविभीषण, खट्वात निमग्रा रक्तनयना नादापूरितदिङ मुखा। धारिणी, विस्तीर्ण वदना और लोल जिवा कालीको काली 1-करानवदना ( लरिबतमुहहम्ता), प्रसि- उत्पत्ति कही है । बहो कालो चामुण्डा नामसे पाशधारिणी विचित्रनट्वाङ्गन्धरा, नरमुण्डमाला. विख्यात हुयों। उन्होंने रक्तवीजका रुधिर पोया था। शोभिता, व्याघ्रचर्मपरिधाना, शुष्कमांसा, अति- पतद्भिन्न अन्यान्य पुराणों में भी काती, भद्रकाली, भयानक्ष मूति, अतिविस्त तमुखमण्डला, लोल- महाशाती, इत्यादि नाम पाये हैं। किन्तु उत्पत्तिके रसना, मोषणा, गादरतनयना और हुशार शब्दसे सम्बन्ध में कोई विशेष विवरण नहीं मिलता। दिड मण्डल परिपूर्णकारिणो हैं । कानीने युद्धमें चण्ड . शक्षिप्रधान काम्दोकी पूना, ध्यान, कषचादि एवं तान्त्रिक रहस्यादि "सामा" मुण्डको मार कोषिकोको उनके दोनों मुण्ड उपहार शब्दमैं पौर चन्यान्य विषय "दुर्गा" शब्दमैं देखी । दे कहा था, 'हमने घण्डमुण्ड नामक दो महापश कालीमूर्तिका रूप विचार कर देखने से समझ मारे हैं, अव युद्ध यज्ञमें शुम्भ-निशुम्भको तुम संहार सकते कि वह महाकालका प्रणयिनी हैं, पनन्तकाल. करो।' कोषिकोने हंस कर कहा, 'चण्डमुण्डको तुमने रूपी शिव पदतलमें दलित हो रहे हैं। सर्वध्वंसकारिणी माग है। इससे तुम्हारा नाम चामुण्डा विख्यात शामिनापक प्रसि हाथमें है । भूत, वर्तमान और होगा।' भविष्यत् कालवाचक विनयन है।यादि । प्रायः जो कालो वा स्यामा मूर्ति देख पड़ती उस. (गवासनको कथा ग्यामा सब्दमें देखो।) के साथ उक्त मूर्ति को सम्पर्ण एकता नहीं लगती । कालीअंछी (हिं० स्त्री० ) वृहत् सुपविशेष, एक बड़ी फिर भी कुछ सादृश्य देख पडता है । झाड़ी। उसके वृन्तमें परत कण्टक निकलते हैं। रक्तवीजके बधसमय उन्हों कालीने जिहा निकाल पत्र प्रायः १२ । १३ अनुनि दीर्घ लगते हैं। उनका और तदुपरि रक्तवीजज्ञा शरीर विनिर्गत समस्त रक्त मान्तभाग दन्तुर रहता है। पुष्प पाटलवणं होते हैं। डाल, पान किया था। सोषिकोके प्रस्त्रप्रहारमे कालोहोके रक्तवर्ण फल पकनेसे काले पड़ जाते रक्तवीज विनष्ट हुभा। है, मिवा पंजाव और गुजरात के भारतवर्ष समय चण्डी में कालीपूजाका कोई विधान नहीं मिलता स्थानोंपर उताव मिलता है। इसे पुष्पके लिये शुम्भनिशुम्भके वध पोछे देवीने देवतावासे लगाते हैं। पति कही वह शारदीय महापूजाको कथा थी। देवीभागवतके ५म स्कन्धौ २३ अध्याय पर कौषी कालीक (स'पु० ) के जले प्रति पर्याप्नोति प्रभवति इत्यर्थः, क-अन्न-किन पृषोदरादित्वात् दोघः । क्रोध, मी उत्यत्तिके पछि पार्वतीका शरीर कृष्णवणे पड़ने वक, शिमो जिम्मका वगला। पर कालिका नामले प्रसिद्ध होनेकी कथा निखी है। कालीघटा (म० स्त्री० ) छायावर्ण तन मेघथेणी, शिन्तु उमा नाम कालरात्रि बताया गया है। उठता हुदा काला वादन। चण्डीकधित उन कालिकाका कोई कार्य नहीं मिलता, कालीघाट-क पीठस्थान । वह कलकत्तेके दक्षिण- -किन्तु देवी-भागवल्में लिया कि धूमलोचनसे उनका प्रान्तमें प्राचीन गङ्गाके कछार पर अक्षा• २२.३१ • माकैयचडी-चमुटवष, ५-६ भोक ३.“७० और देशा० ८८.२३ पू. पर अवस्थित है। नी पूजा
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