.५६२ कालचिन-कालजोषक ग्रह वक्रगामी वा मन्दस्थानगत ही जन्मननन दोनोंके गुदेशर्म) नगर्नेमे ही प्राए विनिष्ट को सताने, जिसकी होरा, उल्का तथा अनि जाता है। ग्वाम पथवा काम गगमें अनिमार, द्वारा अभिभूत होती, जिसके ग्रह, हार, शय्या, चर, हिक्का, वमन, अण्डकोष एवं नि गोय प्रासन, यान, वाहन, मणि, रत्न प्रमृति सकल उप प्रमृति उपद्रव उठनमे मृत्यु पाता है। इन्नवान् रोगी लरण कुलक्षणयुक्त होते, उसे अचिरात् मरते देखते भी वेद, दाह, हिका पौर स्वाम प्रमृति उग्र- हैं। शरीरकी प्रभा श्याम, नोहित, नील वां पोत युक्त होर्निमें नहीं बच सकता। जिम शक्तिको जिद्रा वर्ण पड़ते मृत्यु निकटवर्ती समझा जाता है । ज्यामवर्ण वन जाती, दामच कोटरगत होता, मुखये जिसको कान्ति और लन्ना विनष्ट देख्न पड़ती, पृतिगन्ध निशानता, अमे मुखमण्डन्न भर जाता, अकस्मात् जिसके शरीरमें तेजः, प्रोजः, स्मृति तथा पटहमें धर्म (पमोना) आता, प्रानुन पढ़ता प्रमा. उपस्थित होती, जिसका पोष्ठ लटकने लगता, शरीरके मकन गुरु अवयव हटात् पनने पड जाये, निसका उत्तरोष्ठ अवंगत होता अथवा निम उमय जो पह, मत्स्य, वमा, तैन्न घऔर नशा गध अनुभव प्रोष्ठ जामनकी मांति काले पड़ नाते, उमझा जीवन कर नहीं सकता, मस्तकके जंघा हिम रसाटयर अतिदुर्लभ है । सकन दन्त रतवर्ण ज्यामवर्ण विचरण करते, जिसके हायमे प्रदान करनेपर शाक वा खननवणं होने, निद्वा कृष्णवर्ण, स्तब्ध, प्रव खाद्य नहीं खाते, निमको किमो विषयमै मन्तुष्टि नहीं लिप्त, योथयुक्त वा कर्कश लगने, नामिका कुटिल पाती, उमका मृत्यु प्रति श्रामन्त्र है। क्षीण शक्तिको फटीफटी तथा शुष्क पड़ने, स्वर अधिक प्रकाशित क्षुधा या रुचिक्षारक एवं हितबन मिटान पान- अथवा वद्ध हो नाने, चक्षुई य सङ्कुचित, स्तब्ध, रक्तवर्ण हाग निवारित न होने और एक ही ज्ञान पामामय अथवा अश्रुयुझरहने, केश अपने पाप उन्नझने, भइय रोगमें शिरशूल तथा दारुष कोठगृल घठनमे अकने और सकस प्रतिपक्ष्म गिरनेसे पविलम्ब मृत्यु नोगोंका अचिरात् नृत्यु होता है।" होता है। जो मुख में खाद्यवस्तु डान्सनेमे निगन नहीं (अश्व मुबम्बार १०,११,१०) लोअपना मस्तक धारण करने में असमर्थ रहता, कान घोदित (म.वि.) कालेन शोदितः प्रेरितः जो एकाग्र दृष्टिको भांति एक विषयमें चक्षु मनिवेश ३-तत् । ययाकान्न विना चेष्टाके उपस्थित, मौतका मेना करता अथवा मुग्धचित्त वनता, वह प्रवश्व मरता है। हुवा, निमे समय या मृत्यु भेने । बलवान् वा दुर्वन व्यक्तिका वारवार मोहमें पड़ना भी कालचोदितका (म.वि.) माग्यके प्रमावसे कम- ‘मृत्यु लक्षण समझा जाता है । जो व्यक्ति सर्वदा करनेवाला, जो किस्मत बीरमे काम करता हो। उत्तान होकर सोता, पददय विक्षेप वा प्रमारप.करता, कालजानि (सं० जी.) नदी क्रिीष, एक दरया । जिसका इस्त, पद एवं निवास गौतन्न पड़ जाता, पन्नाईकुरी और दीमा नामक दो नदियां भूटान जिसका वास छिन्न रहता और नि:ग्वाम काकोच्छा पर्वतमे निकन्न नपाईगोड़ी हिन्में बन्दीपुर नामक सको भांति लगता, वह अधिक दिन नहीं चलता। स्थान पर पा मिली हैं। इसी महमपर उक्त दोनों अविरत सोने, एकवारभो निद्रा मन न होने अथवा नदियोंका नाम 'कानज्ञानि' पड़ा है। यह नदी प्राग एकवारगीही निद्रा न पड़ने, बोलनेशो चेष्टा करने में चन्च कोचविहार राज्य की पूर्व और पहुंची और राष्ट्र- मूळ पाने, सर्वदा उटगार देखाने, प्रेतके साथ वतन्लाने, पुरके निकट रक्षक नामक नदीमें जा गिरी है। विषाक्त न होते भी गेमकूपहारा रत निकरने और काननुवारी (हिं• पु० ) प्रमिह झूतकार, नामी अशा- वाताष्ठीला हृदयमें चढनेसे मृत्यु निकट प्रा पहुंचता बाज, जो खुब जबा खेचता हो। है। किसी रोगके उपद्रव व्यतीत केवल गोयरोग कानजोषक (म. वि. ) काचे यथाकारी परे (पुरुषके पदइयों, स्त्रीके मुखदेशमें और पुरुष-स्त्री। भोजनादि ति मेषः, काच-अप-गवुन् । १ वा समय सकता,
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५६१
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