कापस परमो पोशाक या ग्रहस्थित ट्रव्यादिके लिये कपासको परदा या किसी दूसरे काममें मूती कपडा लगाने में छोटका कपड़ा खरीदने से क्रेता वा विक्रेताको २०० २.१) रु. जुरमाना देना पड़ता था । किन्तु कानुन पाउण्ड या २०००० रु. जुर्माना देना पड़ता था । बननेसे हो क्या हुवा, इङ्गनेण्डीय महिलाओंकी दृष्टि किन्तु कार्यासके अपर लोगोंका इतना प्रेम रहा कि कार्यासको ओर जा चुकी थी वेशभूषाका कानुन उनके गोपनमें उसका व्यवहार चन्नने लगा। क्रमशः पृङ्गा हाथ था। १७३६ ई० में कानूनको कठोरता लोगों को लेण्डमें भारतीय वस्त्रपर छोंटकी मोहर लगे और घटाना पड़ी। पीछे कानन निकला था-"कपासके भारतके बने दोनों वस्त्रों के प्रचारमे जनका आदर घटा कपड़ेगा साना पाट (लिनेन ) के सूत्रका रहने था। फिर बत्ती बनानेके लिये कार्पासको भांति दूसरी दृङ्गले एहमें कोई भी इच्छा करने उसे बना सकेगा।" सामग्री नहीं मिलती। उसका साधारण को प्रयोजन उसके पीछे ३५ वर्ष के बीच वाट पाकैराट प्रमृति भी पड़ता है। अन्तत: उसके लिये भी कार्यास का साहाने तरह तरहको कलें निकाली उनमें बहुविध प्रयोजन हुवा । कानूनने उसे रोकना चाहा न था । सुस्तम मूख्यसे उक्त वस्त्र बनने लगा। १७७४ ई. में पार्लियामेण्ट में इस सम्बन्ध पर बहुत तक चला कि इङ्गलेण्ड में कार्पासवस्त्र प्रस्तुत करने के चिये व्यवस्था भारतीय कार्यास इङ्गलेण्डके अनका अनिष्टसाधन करता भी हुयी थी। फिर कलके कारखानोमें वस्त्रययनशो है। १६२३ ई०को ८ वी मार्चको पार्लियामेण्टने घोर. कपासको रूईका प्रयोजन. पडा। उससे भारतके सर तक वितर्क कर स्थिर किया कि प्रति सर्वनाशका सूत्रपात दुपा था। भारतसे कार्याम व अकेले कार्यसके लिये ही ८ लाख रुपया वस्त्र बदले कपासको की नेण्ड ननि बगी। विलायतसे बाहर जाता है। वैसा अर्थनाय जातीय कलक कारखानोंम अधिक रुईकी जरूरत थी। खार्थक लिये विशेष अमिष्टकर है। इतिहासको वही भारतको हाई के साथ साथ अमेरिकाकी को भी वहां कथा पाजकन्न भारतमै प्रतिफलित है। मन साहव पहुंचने लगी। १८३ प्रताब्दके शेष पोर १८वें गता. ईष्ट इण्डिया कम्पनौके एक डिरेका थे। उन्होंने १६२१ ब्दके प्रादिमें अमेरिकाको रुई मंगायो गयो। उससे ई० को हिसाव लगा कर देखा कि उस वर्ष ५०००० पहले अमेरिकाको कई इलेण्ड जाती न थी। क्रमशः खण्ड कार्यास वस्त्र विलायत गया था। एक खण्ड वह अधिक परिमाणम वहां पहुंचने लगो। खरीद जहाजसे लेजाने पर साढे तीन रुपया खर्च ६ष्ट इण्डिया कम्पनी भारतसे अधिक परिमा- पड़ता, जो वित्तायतमें १०) २० को विज्ञता था । उससे णमें रूई भेजना चाहती थी। किन्तु अमेरिकाको लाभ यथेष्ट रहा, कम्मनी सतना लाम छोड़नेको प्रस्तुत रूई प्रयेक्षाकृत उत्कष्ट यौ। उसीसे उसका पादर, न थी। आमदनी के साथ २ लाभका भाग भी बढ़ने भी अधिक रहा। १०८८ ई. को कोर्ट पाफ डिरे. लगा । १७०८ ई० को मसिड पण्डित डिफो साहवन करने भारतके गवरनर-जनरलको उत्झर कई घोकली रिव्यू ( Weekly Review ) नामक पत्र भेजने के लिये पत्र लिखा था। उससे समझ पड़ा लिखा था,-"भारतके साथ यह वाणिज्य बढनेसे कि इङ्गलेण्डके बाजारमें अमेरिकाको हके साथ जनका कारवार आधा बिगड गया। इङ्गलेण्ड के भारतीय रूई की विलक्षण प्रतिवन्दिता लगी थी। इस अधिवासियों का अर्धाश जम्मको भांति अनहोन इवा' इन्दमें कभी भारत और कभी अमेरिकाने जय साम १७२० ई० में दूसरा कानून निकला। उससे क्या किया। किन्तु अमेरिकाको लंबे धागवानी का अग्लेण्ड, क्या स्काटलेण्ड क्या प्रायरलेण्ड कहीं भी पादर और भारतकी छोटे धागवानी करवा अमा- कोई व्यक्ति किसी प्रकारका कार्यासवन अङ्गपर परि दर क्रमशः होने लगा । फिर भारतीय कार में मिचा- धान कर न सकता था। कार्यासवरन पहनने से. ५) बट रहनेमे अनादर अधिक बढ़ गया। किन्न जरमानेको सजा यो । फिर विछौना, तकिया पारन भारतमें पमेरिकाबी भांति पच्छी 1
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५४१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।