कार्णाटभाषा-जातवौयदीप पण खाथै कन्। १ कर्णाट देशवासी। (त्रि.) उन्होंसे हार निगड़बड़ हुये। पीछे गवपके पितामह २ काट देशसम्बन्धीय । . पुलस्ता मुनिने जाकर छुड़ा दिया। कार्तीय नमः कार्णाटभाषा (सं. स्त्री०) कार्णाटानt कर्णाट. दग्नि प्राथमसे सत्सा धेनु चुदा नाये थे। उमौमे देशीयानां भाषा, ६-तत्। कर्णाटदेशीयांकी भाषा, जमदग्निके पुत्र परशुगमने उन्हें मार डाला। (भारत, एक बोली। अनु० १५२ ५०) २ कोई चक्रवर्ती राजा। इनका दूसरा कार्यायनि ( स० वि०) करन निहत्तम, कर्ण-फिञ् । नाम सभौस था। काणि (स.नि.) कर्ण-फिन विधानस्य विकल्पत्वात् | कातैवीयंदीप ( स० पु०) कार्तवीर्याशन दीयमानो एन । १ कर्ण द्वारा निष्पादित । २ कर्ण सम्बन्धीय । दीपः, मध्यपदलोपी कर्मधा। कार्तवीर्य के उद्देशसे काणिक (स.नि.) कर्णस्य इदम, कर्ण-ठन । प्रदत्तदीप, जो दोया कार्तवीर्य के लिये दिया जाता हो। कर्ण सम्बन्धीय। उडडासरेश्वरतन्त्र में उक्त दोष देने की विधि लिखी है। काते (त्रि०) कृतस्य इदम् । १ सत्प्रत्ययसे यथा-किसी शुद्ध स्थानको गोमयसे लीप उसके मध्य सम्बन्ध रखनेवाला। (क्ली. ) तमेव स्वार्थ प्रा । स्वस्नमें विन्टुयुक्ता त्रिकोणमण्हमा बनाना चाहिये । २ सत्ययुग। कसः कृत्प्रत्ययस्य व्याख्यानो अन्यः, मण्डलकी वहिदिक कुकुस एवं रक्तचन्दन मिश्रित छत्-श्रण । ३ कत् प्रत्ययको व्याख्याका एक ग्रन्थ । तण्डल द्वारा षटकोगा और मण्डन्नक मध्यदेश मून. (पु.) ४ धर्मनेत्र के पुत्र। पन्न निन्दते हैं। मन्त्रके अपर घृतपूर्ण प्रदीप रख कातकोजपादि (स• पु०) पाणिनि व्याकरणोक्त एक मङ्कल्प करनेकी विधि है। सकल्पना सन्स यह है- गण। -इन्द समासयुक्त इस गणके सकल शब्दके पूर्व- "सावीर महावाही मकानामभयप्रद । पदमें प्रकृतिस्वर लगता है। कात्कौलपात्यय । पाहा॥३०॥ रहाय दीप' महान कल्यायं कुरु सर्वदा। गण यथा-कातकोजपो, सावणि माण्डके यो, अवन्त्यः धनेम दीपदान कार्यवीयस्तु प्रौयवाम् ।" श्मकाः, पैस्सम्यापर्णयाः, कपिण्यापर्णयाः, शैतिका शुभफन्तक्षी कामनामे दीपदानकाल एक प्रदोष पाचालयाः, कटूकवाधुलेयाः, शाकलस्तनकाः, गाकल पश्चिममुग्ड स्थापन करना चाहिये। फिर अभिचार शणकाः, शणकवानवाः, पार्थाभिमाइलाः, कुन्ति कार्ट में तीन प्रदीप दक्षिण, उत्तर एवं पश्चिममुख पौर सुराष्ट्राः, तण्डवतण्डाः, पविमत्तकामविद्याः, वाम नष्ट वस्तु प्राप्तिको कामना पर पांच ततोधिक विषम वशालकायनाः, वाचवदानच्युताः, कटकालापाः, कठ. संख्यक मदीप रखते हैं। चतुर्वर्ग का फज्ञ पतिको कौधुमा, कौथुमलौकाशः, स्नीकुमारम, सौत एक शत दीप और मारणके कायमें एक महन या पार्थवाः, जरामृत्यू, याज्यानुवाक्ये । दश समदीपका दान विध्व है। चांदी, तावा, कार्तयश (वै० लो०) सामभेद । लोहा, महो, गैई, उड़द और मूगके चर्गसे सब दीप कार्तंयुग (स.पु) सतमेव कात: कार्तश्चासौ युगये ति बनाना पड़ते हैं। वर्ष द्वारा प्रस्तुत करने पर कार्य कर्मधा। सत्ययुग। सिधि होती है। रोग्य का दोप देनसे जगत् वशीभूत कार्तवीर्य (स'• पु०) सतवीर्यस्य अपत्यं पुमान्, कात. हो जाता है। ताम्रके दीपसे शत्रुका भय छूटता है। वीर्य अण। चन्द्रधशीय तबीया राजाके पुत्र । कांस्य द्वारा निर्मित दोपसे हिंसाकार्य सम्पादित झता नको नामान्तर हैहय, दोसासमत् पौर अन है। मारणके कार्यमें लौह हारा दीपनिर्माण करते है। उच्चाटनमें मृत्तिकाका दीप बनता है।. गोधूम है। मोहितोपुगे: कालवीयको राजधानी थी। उन्होंने दत्तात्रेके योगसे युद्ध- समय सघन हस्त का दीप देनेमे युपमें जयलाभ होता है। शन सुख सम्भनके लिये सापमा दीप दिया जाता है। राप्तिका घर पा कर भुजयनसे . सचागरा पृथिवी पर सन्धिी कार्य में नदौ उभयानको मृतिकाका दोप • अधिकारकिया थासापति रावण दिग्विजयको समय 5 5
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५३१
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