पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५१६

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कारक देख पड़ता, पाती है। पाराश। जिस विकृत अङ्ग हारा थरीरीका विकार वाचक उपपदविशिष्ट प्रप्रयुक्त तुमन् अर्थके कर्मम उसी अङ्गविशेषम कृतीयाका प्रयोग चतुर्थों चलती है। तुमघांच माववचनात् । पा रा३।१५1 तुमर्थ चलता है। यम्भूतलक्षणे। पाराश! जिस चि हारा प्रयोगमै और भाववचनामे विहित प्रत्ययक प्रयोगमे कोई रूपान्तर लक्षित होता, उसमें तीया विभलिका चतुर्थी पाती है। नमः खत्ति वाहा सुधाळ वषट्योगा। प्रयोग पड़ता है। स'गोऽन्यतरस्यां कमणि। पा राशर । पा २।३।१७। स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा; पलं और वषट् संपूर्वक ज्ञा धातुके योगमें विकल्पसे हतीया होती है। शब्दके योगर्म चतुर्थों लगती है। मन्वक्रमबारे हेती। पाशशर. फलसाधनयोग्य पदार्थ में , हतीया विभाषाऽप्रापिषु । पा २०१०। मन धातुके अनादर अर्य. गम्यमानमें प्राणिवातीत अन्य कर्म पद पर विकल्समे सम्प्रदानका लक्षण है-कर्मशा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम् । चतुथी विभक्ति लगाते है। फिर विकल पचमें पा ११४३२। जिसके उद्देशसे दानकार्य सम्पादित होता, द्वितीया विमक्ति पाती है। गव्यर्थ कर्मपि रिवोया-चतुर्मा उसोको सम्प्रदान संज्ञा है। रुधर्थानां प्रीयमाणः। चटायामनध्वनि। पा श३।१२। गत्यर्थ धातुर्क कायछत- पा १॥४॥३ रुचि अर्थवोधक धातुके प्रयोगमें प्रीयमाण वापार प्रथम प्रध्व मित्र कर्मस्थच पर द्वितीया पौर अर्थात् प्रीतिवालेकी सम्प्रदान संशा होती है। शाधन, चतों विभक्ति होती हैं। उसको छोड़ तादय अर्थ, स्वाथां शीप स्यमानः। पा १४:३७ । साध, इ, स्था और शय् रूप धातुके अर्थ, सम्पदान अर्थ, उत्पातके द्वारा धातुके प्रयोगमें उनके अर्थ अनुभवकारकको सम्प्रदान चापित विषय पौर हित शब्दके योगमें भी चतुर्थी संज्ञा पड़ती है। धारकत्तमः । पा 8३५ । पिजन्सg विधि स्वगती है। धातुके प्रयोगमें उत्तमणको सम्प्रदान संत्रा होती है। पपादनका लचय है,-ध्रुवमपायपादानम् । पाtain. प डेरोसितः। पा १६ । स्सह धातुके प्रयोगमे अभीष्ट विशेष विषय में अवधीभूत कारकको अपादान संत्रा पदार्थ की सम्प्रदान संज्ञा है। क्रुधामयार्थानां यं प्रति कोपः। होती है। भौतार्थानां मबईतुः । पा १४२५ भया और पा ४३७। क्रोध, अपकार, ईर्था पौर अस्या पथके रक्षार्थ धातुके प्रयोगमें भयहेतुकी अपादान संत्रा प्रयोगमै जिसके प्रति क्रोध पाता, वही सम्पदाम ठहरती है। परारमोदः । पा । परा पूर्वक नि: कहाता है। किन्तु उपसर्गविशिष्ट होनेसे उसे कर्म धातुके प्रयोग, असा प्रर्यको अपादान संत्रा है। कहते हैं। राधीचोर्यस्य विपश्यः पा ११२राध और ईच बारपानामोमिमः। 41 101 वारणार्थ धातुके प्रयोगले धातुके प्रयोगमें जिसके सम्बन्ध पर शभागभ प्रश्न ईप्सित विषयकी अपादान संचाचगाते हैं। प्रधाना.. किया जाता, वही सम्पदान कहाता है। प्रत्याभ्यां व वः दर्भममिच्छति । पा २८ व्यवधान रहते जिसके द्वारा. पूर्वस्य कर्ता । पार1०। प्रति पौर पाङ, पूर्वक शु धातुके अपने प्रदर्शनको इच्छा को चासो, उसकी अपादाम- प्रयोगमें पूर्ववर्ती प्रवर्तन व्यापारका जो कर्ता रहता, संत्रा पाती है। पाख्यायोपयोगे । पा ReI यथारीति- उसका नाम सम्प्रदान पड़ता है। अनुप्रतिग्टयामा अधयन में नो वक्ता रहता, उसका नाम प्रपादान पारा४/811 अनु और प्रति पूर्वक गृ धातुके प्रयोगमें पड़ता है। अनिकतः प्रकृतिः। पा || जन धातुके. प्रवर्तन व्यापारके कर्ताको सम्पदान संत्रा होती है। प्रयोगमें उत्पत्तिकारणको प्रपादान संत्रा होती परिक्रय सम्पदाममन्यतरस्वाम् । पा१४181 जिसके द्वारा नियत है। भुवः प्रभवः पा ११४३५६ प्रपूर्वक भू धातुके प्रयोगमें कालके लिये अधिकार, सधता, विकल्पसे उसका उत्पत्ति कारणकी अपादान संत्रा है। अपादाने पक्षमा । सम्प्रदान नाम पड़ता है। चतुर्थों सम्दाने । पा३५॥ पाराशर८६ अपादान कारकर्मे पक्षमी विभक्ति सगती चतुर्थी विभक्ति होती है। है। उसको शेड अन्य स्खोंमें भी पश्चमी विधि अन्यान्य स्यसमें भी चतुर्थी विभक्तिका विधान है, सौती है। यथा-वारादिवरत दिक मन्दाय परपदानादि यु । यथा-क्रियार्पोपपदस्य पवमपि खानिनः । पाराश किया पा सार । पन्ध, पारात्, इतर ऋते, दिक,अत्तर, पाच सम्पदान अर्थ में