पन्यान्य उपयुक्त तथा कायस्थ प्रचलित हैं। उनका कर्मकाण्ड मैथिल ब्राह्मणों के पुरी जिलाम खुर्दाके राजाका दीवान है। ही सदृश होता है। किन्तु विवाह, श्राहादिकमें करण अवशिष्ट श्राधे धरमें समझ जाते हैं। इस भिन्नता देख पड़ती है। मिथिल कायस्थों में प्राजापत्य समय तक प्राठगड़के राजाका 'वैवर्तापहनायक विवाह करते हैं। उपाधि विद्यमान है। करण खर, पुरं और व्याऊ. वडोसा। भेदसे अपनेको तीन श्रेणीयाँमें विभक्त करते हैं। उड़ीसाके करण अपनेको विशुद्ध कायस्थ पौर आठगड़-राजवंशीय 'खर' खुर्दाके दीवान- चित्रगुप्तके वंशधर बताते हैं। इस बातके समझानेका वंशीय 'पुर' और अन्यान्य अपनेको 'व्या श्रेणीका कोई प्रकष्ट उपाय नहीं-वह किस समय और किस कायस्थ कहते हैं। प्रथमोत दी श्रेणी वतीय यौसे प्रकार जा कर उड़ीसामें रहे। पुरीकी श्रीमन्दिरस्थ अपनेको विशेष कुलीन प्रकाश करती है। इन्हें मादलापच्ची और अन्यान्य विवरणसे समझ पड़ता उत्कल-प्रचलित सामाजिक रीतिके अनुसार ब्राह्मागोंसे. कि उन्होंने मगधसे गङ्गवंशीय राजावोंके अभ्युदयसे नीचे और खण्डायतोंसे ऊपर मर्यादा मिलती है। बहुपूर्व उड़ीसा जा कर पूर्वतन राजावोंके अधीन सम्पति करण कायस्थ कटक, पुरी एवं वाले- कर्म स्वीकार किया था। गङ्गवंशीय राजावोंके पूर्व खर तोन जिला, समस्त गड़जात महानों और वर्ती कटक, सम्बलपुर प्रभृति स्थानोंसे पाविष्कत गजाम सम्बलपुर प्रभृति स्थानों में वाम सोमवयीय राजावोंके समय उत्कीर्ण ताम्रशासनसे करते हैं। भिन्न भिन्न स्थानों में अवस्थिति करनेसे समझते कि कलिङ्गाधिपति जनमेजय, ययाति, उनका प्राचार-व्यवहार तथा रीति-नाति भी बदल महाभवगुप्त प्रकृति राजाके अधीन कायस्थ महा गई है। पुरी तथा कटक पञ्चलके करणारे सान्धिविग्रहिकका कार्य करते थे। उनका 'घोष भद्रख एवं वालेखर अञ्चलके करणोंका विवाह- 'दत्त' इत्यादि उपाधि था। उक्त सकल उपाधि सम्बन्ध नहीं होता। पुरी और सुर्दा अपञ्चके. मागध वा विहारी कायस्थों में नहीं मिलते। किन्तु वङ्गीय करण अपनेको सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। उत्कलीय. कायस्थींके मध्य वह सकल उपाधि प्रचलित हैं। करण महान्ति, दास, नायक, मह, पटनायक, इससे समझ सकते कि वङ्गदेशसे ही जा कर करपिक कानूनगो और सेनापति प्रभृति उपाधि-भूषित हैं। कायस्थ उड़ीसामें बसे थे। पानश्ल विशुद्ध करण उनमें काननगी पौर पटनायक उपाधि विशेष. भी अपनेको बङ्गालका ही कायस्थ बताते हैं। बझाल. सम्मानसूचक होते हैं। सेनके समय कोलीन्य प्रथा ग्रहण न करनेसे उन्हें उत्कलीय करणों में कोई चैतन्यभक्त और कोई देश छोड़ उड़ीसा जाना पड़ा। किन्तु हम पहले ही जगत्रायके अतिवड़ी सम्प्रदाय-मुक्त हैं। चैतन्ध- लिख चुके हैं कि बल्लालसेनमे बहु पूर्व उड़ीसा | देवके उड़ीसा जानेसे पान तक उनमें अनेक 'घोंघ और 'दत्त' उपाधिधारी कायस्थ विद्यमान थे। वैष्णव कवियों ने जन्मग्रहण किया है। उनके मध्य करण कहते कि सबसे पहले उनके ढाई घर रहे। कविवर 'बलराम दास' देशविख्यात हैं। उन्होंने सम्भवत: उनके कथनका उद्देश यह है कि सर्व उत्कस पद्यसमन्वित अनेक पौराषिक ग्रन्थ प्रणयन प्रथम उनको संख्या प्रति अल्पमात्र रही। किये। उड़ीसेके बहुतसे खानों में सही करण ढाई घरों में एकने. 'आठगई का वर्तमान राजवंश वैष्णवों का एक सम्पदाय है। उनमें कोई गौड़ीय,. किया था। वह पूर्वतन उत्कन कोई पतिबड़ी और कोई रामानन्दी राजके 'वैवर्ता (व्यवहर्ता-मन्त्री ) रहे। दूसरा घर अन्तर्गत है। कभी कमी करणीके साथ वा बरता है। वा sidangal hetic Society of Bengal, Vol. XLVI. मन्यमांस नहीं पाते। 177. श्रेणीक- उनका विवाह हंसी श्रेणी किंवा 5171
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