885 कायस्थ गोपीमोहन. १२१३ सालको कायस्थों का क्षत्रियत्व समाजमें संस्कृत बिचा-प्रसारके माध क्रमसे वह संवादपत्रमें घोषणा करते भी प्रक्षत कोई कार्य कर न फसफर शुशोभित महीहमें परिणत होते माता सके। उनके साथ पान्दुल-राजवंशको बराबर है। पालकत, वङ्गाके उत्तरराढ़ीय, दचिपरादोय, सामाजिक प्रतिवन्दिता रही। कहना था है कि वजन और वारेन्द्र इन चार श्रेणोके कायस्खोंके मध्य उस काल कलकत्तेके दक्षिणरादीय कायस्थों के मध्य प्रायः सचाधिक कायस्थ-सन्तान दिलोचित उपनयन- १२ दत्त थे। दूसरे खानको भौर क्या बात कहेंगे। सम्पत्र हैं। उस चारों समाजोंके बटुकुचीन और राजा राधाकान्त देवके सुयोग्य दौहित्र स्वर्गीय 'मौशिक कायस्थ सन्तानोंने व्रात्य प्रायवित्त पन्त में भानन्दकृष्ण वसु महायसे सुना है कि उस उपवीत ग्रहण किया है एवं उनके मध्य बयोदयाहमें सामाजिक प्रतिवन्दिताके समय राजा राधाकान्त देवने याबादि ववर्णाचित प्राचार प्रचलित पा है। पान्दुलके राजा राजनारायणका विरुद्ध पक्ष अवन्तम्बन विशेषभावसे वनके प्रधान प्रधान पण्डित भी इस किया था। उसी सुयोगमें उनके शब्दकल्पद्रुमके स्थानके चित्रगुप्तवंशीय कायस्खों को वियवर्ण- संश्लिष्ट पण्डितने 'प्राचारनिर्णयतन्त्र' और 'पग्नि- सम्भत समझते हैं। जब संस्कृत कावेनमें पुगणीय जातिमाला कोरचना कर कौशससे शब्दकल्प कायस्थ छात्र चिये जायेंगे या नहीं-बात उठी, उस गुमके मध्य प्रक्षिप्त किया, यह विचित्र नहीं। जो समय संस्क त कालेजके - अधचप प्रातःस्मरणीय हो, राजा राधाकान्त देव बहादुर र वयसमें अपना स्वर्गीय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर महाधयने शिक्षा- बम समझ सके थे। शब्दकल्पद्रुमका वही भ्रम विभागके हिरेकर महोदयको १८५१ ई. को २० वों संयोधन करनेके लिये वह अपने सुयोग्य और मार्चको लिखा था-"जब वैश कालेजमें पढ़ सकते सुपण्डित जामाता अमृतलास मित्र और प्रिय दौहित है, तव कायस्य क्यों न पढ़ सकेंगे? जब शूद्रजाति पण्डितवर भानन्दकृष्ण वसु महोदय पर भार अर्पण | वैद्य और अब शोभावानारके रामा राधाकान्त देवक कर गये। वह केवल मुखसे ही कह कर वान्त जामाता हिन्दू-स्कूल के छात्र प्रमतमात मिवने संस्क त नये, अपने हा वयसवाले निल पौत्रके विवाहमें .कालेज में पढ़नेका अधिकार पाया है, तब पन्याच हिलोचित कुथण्डिका करके पिळपुरुषों का.मुखोज्ज्वल कायस्थ क्यों पढ़ न सकेंगे? कायस्थ पतिय पान्दूचके कर गये हैं। यह बात उनके पामीय खनन राणा राजनारायण बहादुरने इसे प्रमाप करनेको सब जानते हैं। इतिहास में भी यह बात लिखी प्रयास उठाया। कि कायस्खोंको संस्कृत कालेज में लेना उचित है। उसके पीछे संस्कत कालेनके - राजा राधाकान्त देव थोड़े दिन अधिक जीनेस अध्यक्ष वर्मीय महामहोपाध्याय महेशचन्द्र न्यायरत्न चिनियापार प्रवर्तनमें उद्योगी...बनते, सन्द नहीं। महाशय बङ्गता विश्वकोषमें कायस्व शब्द पढ़ तत्- जो हो, पान्दुलके राजा रामनारायणको भांति स्वर्गीय कालीन संस्कृतं कालेजके स्मृति-प्रध्यापक स्वर्गीय राय मोहनलाल मित्र महाशय पविय पाचारक मधुसूदन मतिरत्न महाशयको कहा था-'बायख- प्रचलनमें उद्योगी हुये थे। किन्तु उस समय संस्कृत जाति चत्रियवर्ण है, यह हम अच्छी तरह समझ । ‘भाषामें प्रशिक्षित शास्त्रज्ञानहीन स्वजातीयोंके निकट : सके हैं। इनके परवर्ती पध्वच महामहोपाध्याय रुपयुक्त सहानुभूति न मिलनेसे उनका. महत् उद्देश मौसमदि न्यायासहर महाशयने बायस्थोंको
- सुसिद्ध हो न सका। जो हो, पान्दुस्खके राजा राम-चनियकी भांति स्त्रीकार किया है। (इनवा माडा
भारायण, जो वौन वो गये हैं, वर्तमान कायख इतिहास द्रष्टम्य) पसापर महामहोपाध्याय प्रसाद पानी महामय सिख गये हैं-बाय प्रमख वर्मप्रतिहार Ghose's Indian Obiefs,. Rajas, and Zamindars, वियेही बाधपोंकी भांति बायखके प्रधान इस 1881, VOL. II. p. 30,