3 ४६६ कीयस्थ सान्धिविग्रहिक वारन्ट्रं कायख प्रजापति नन्दी और लेकर बासको बहुतसी जातियों में पाया जाता है। उनके पुत्र 'रामचरित' रचयिता 'कलिकासवाल्मीकि ऐसीदशामें केवल रघुनन्दनोश वसु, घोष प्रादि बन्दोंमे सन्ध्याकर मन्दीका नाम विशेष उखयोग्य है। बङ्गालके कोई कायख शूद्र बर्षे माने जा सकते। पाल राजाओं के समयमें बहुतसे कायस्थ बौन-सड़के ई. १४वौं शताब्दीमें गौड़से कुछ काय-पश्चित विहार में प्रधानाचार्य भी होगये थे। राना दुनुभनारायचकी भोरसे कामना (कोचविहार)- ग्राणोंके समान अधिकार होनेसे ही में बुलाये गये थे। ये वहां "बारहमुंश्या" वाचाये कायस्थ-ब्राहाणोंके पभ्युदयके समयमें मो-ऐसे ऐसे और पौन्होंने वहां अपना प्राधिपत्य जमा लिया। ॐ पदों के अधिकारी बने और इसी लिए ही ये इनके पाचार-व्यवहार ब्राधषों की भांति ही थे। वाङ्गीय ब्राह्मणसमानके विद्देषभाजन हुए थे। वैदिक इन्ही (इयांगों के पनपी गिरोमणि मुंडयाँ कायम प्राधणों ने इन सधर्मियों पर कैसे कैसे अत्याचार चण्डीवरके वंश (महाप्रभु चैतन्यदेवके परिसे) किये हैं, इसका पता 'शून्य पुराण के अन्तर्गत ई० १५ वीं शताब्दीको महापुरुष और पहितीय "निरञ्जनको रुमासे खूब अच्छा लगता है। इसके पण्डित श्रीमहरदेव भाविभूत हुए। पासामके बोस फलस्वरूप बङ्गालमें बौडों का प्रभाव नष्ट हो गया और लाख हिन्दू इनको भगवान का अवतार मान कर ब्राह्मणों के प्रभाव कायस्यौको सच्छूट्रवत् बनना पूजते घे और पब भी ऐसा ही है। कायस्य-अवतार पड़ा। इससे कायस्थांको समान-सम्बन्धी कोई हानि शहरदेव प्रधान कायस्थ शिष्य माधवदेव भी उनकी नहीं उठानी पड़ी, यही कुशल है। ब्राह्मणी नीचे तरह प्रचार कार्यमें दक्ष थे और इन्होंने “महापुरुषीय" कायस्थोंका ही स्थान था। और तो क्या ; अकवर सम्पदाय भी चलाया था। पासामके प्रधान प्रधान बादशाहके समय में बङ्गालमें अधिकतर कायस्थ हो । स्थानों में महापुरुषीयों के मताधिक सन्न ( पुरवस्थान) राजा थे। साखों सैनिक, बजारों घुड़सवार और वर्तमान हैं। उनमें कायस्य सत्राधिकारी पद मी सैकड़ों तो उनके प्राधिपत्यम रक्षाके लिए रहा ब्राह्मण आदि संवं वर्णी के दोचागुरु और प्रायों के करती थीं। "प्राइन-ए-अकबरी"में इसका स्पष्ट सदृश संस्कारवाने देखने में आते हैं। उनके पूर्वन प्रमाण मिलता है। अकबर बादशाहके दरवारमें लोग गौड़वङ्गसे जा कर पासामवासी हुए थे। वङ्गीय कायस्थोके पवियत्वके विषयमें बड़ा भारी प्रान्दोलन कायस्थ परिले हिन कहलात 2-इसका प्रमाण भी हुपा था। उस दरवारमें मधुचूदन सरस्वती जैसे यही है। कृष्णदास कविराज "श्रीचैतन्धचरिता- प्रमुख विहानों ने भी कायस्थोंके वत्रियत्वके अनुकूल में मृत में गौड़के रानाके प्रमात्व केशव वसुका (ई० अपना मत प्रकट किया था। जहांगीर बादमारके १५वीं शताब्दीमें) 'केशवकवी नामसे डल्लेख दिया गया समय प्रकशित "वयान ए कायख" नामक पारसी है। उत्तरराढ़ीय नन्दराम सिंह स्वयं (४० वर्ष ग्रन्यमें उनके मतीका सल्लेख ही नहीं, वरन् इस पहले) गोपीनाथकी पूजा करते थे। किया गया है। किसी किसी पहितका यह कहना ग्यारह पीढ़ियों तक चही पायी। इस वंयम है कि, बङ्गास प्रातःस्मरणीय श्रीरघुनन्दन ही अब सर्वदा यन्त्रको प्रथा और प्रश्वोच्चारण की प्रथा वसु, घोष आदिको शूद्र निर्देध गये हैं, तब बङ्गालके प्रचलित रही है। शिष्य रक्षाको प्रथा और पूनाको कायस्य शूद्र ही समझे जावेंगे। परन्तु निरपेक्ष प्रथा मी बराबर बनी सी है। परिवारकी तरफ "वैलोक्यनारायणकी पचासी मामक पुस्तककागत हो कर यदि रघुनन्दनके अन्य देखे जाय तो उनमें इस पुस्तक लिबाकि चार सौ. कहीं भी "कायस्थ पद तक न मिलेगा। ऐसी दशा में ही प्रचार है। उनके मत कायख शूद्र है-यह बाना विसइस वर्ष पहिले जब चन्द्रदीप रामाश परिमाधम प्राधि- हास्यास्पद है। सुपौर घोष उपाधि ग्रामसे या प्रका पत्य था, तब वावि चांदनी ग्राम निवासी बनायो
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४९५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।