कायस्थ ४६R और समाजसे वहिप्कत होती है, वह 'पक्षम' कहलाती है। कायस्थोंको ऐमा मानना विल्कन पनुचित है। कोई कोई रूपी दुई 'व्याससंहिता' के "यपिकिरातकायम्य 19151 Tota: 1" इस वचनसे कायस्थीको अन्त्यज कहता है। परन्तु यह सोक वास्तविक नहीं बल्कि "पिक विराट-कायस्तु मालाकार-कुटुम्मिनः।" इत्यादि लोकका विकृत पाठ है, इस बातका अन्यत्र प्रमाण मिलेगा। (पायस्यका व मिर्षय पृष्ठमैं विये।) अब पहिले कई हुए पुराण और भतिके प्रमाणों द्वारा कायस्थ पवियवर्ण ही ठहरते हैं। कोई कोई कहा करता है कि, स्कन्दपुराणमें रणकाके माहारमासे दाल्भाश्रममें चान्द्रसेनी कायस्योंकी उत्पत्तिको कथामें- "कायस एप सपनो पविण्या पवियात वसः। रामाभया स दालभ्यन चावधादहिष्कृत: 100 दत्तकायस्थधर्मोऽयं चित्रगुप्तस्य यः स्मृतः । 'प्रानकायस्यमामत्वाने या पिय भूभताम् ॥४५॥ सस्त्र भार्याता चिवनम-कायस्यांगना। सहगाय कायनां दालभ्यगोवाम्ततोऽभवन् ॥४६॥" इन श्लोकों के पाधार पर कोई कोई कहता है कि, विशद्ध नविय चन्द्रसेन राजाके पौरससे उत्पन्न होने पर भी जब उनके पुत्रको "चानधर्मावहिष्क तः" कहा है, तब कायस्थ और पविय एक नहीं हो सकते। इस विषय पर महापण्डित गागाभट्टने अपने “कायस्थ- धर्मप्रदीप"में ऐसा मत प्रकट किया है,- "रामाभया स दाल म्येन चावधर्मादिक तः" इति पचनविरोधः सब चावध गदरगीर्यादिधयियसाधारएधर्मपरः म तु यौतमायावहमपरः था देवाभमादि वर्मायामपि निषेधापन: किन्तु सवायमे मामाग इत्यायुपशम्य कायस्थोत्पत्तिरुया "दाम्म्योपदगतम् ३" इत्यादि यमदामतपः गोलाप्रततीर्घ रन: मदा" इत्यु पम'को उपममोपसहारामामपि चान्द्रसेनीयकायम्यानो अववियत्व' प्रतीयते।" (गागामात कायस्वधर्मदीप) महामहोपाध्याय श्रीयुत वापुदेव शास्त्रीजी और महामहोपाध्यायं कैलाशचन्द्र. शिरोमणिनी जैसे प्रमुख विहान् भी गागाभट्टके उक्त वचनका समर्थन कर गये है। सद्याट्रिखरहके पमलकोपामके माहामा स. मार्जुनबधक प्रसङ्ग ३६३ प्रध्याय लिखा है- "चन्द्र गम्म राममायां मा दुःपिता मगो 01 पमा नियन्या च राम दाभाच ययगः । सतोऽयं मम कायम्यो भविष्यति वयस्त ५ धोऽन को मवेदनादन् चावधांतिकृतः । मृत्वा सदमन रामः पुनरास महामतिः । राम उवाच पवियाप मिस्वारोऽध्ययन' यशाम यत्। तत्करिष्यति पुन मनापानमकमवितर नियता चिवयमस्व वधमाऽम मविपाति। सपनीम्य' मा लेखा राजस मुत्तम"! अर्थात्-'उस समय राजर्षि चन्द्रसेनको भार्या दुःखित हो कर राम और दाल्भा को नमस्कार करके पूछने लगौं, 'पापके वचनानुसार मेरा यह शिशु (पुत्र) कायस्थ नामसे प्रसिद्ध होगा यह ठीक है परन्तु हे ब्रह्मन्। यह पुत्र जब क्षात्रधर्मसे वहिष्कृत कर दिया गया है, तब इसका कोनसा धर्म होगा। महामुनि परशुराम उनके इस प्रश्नको सुन कर फिर कहने लगे,–'तुम्हारा पुत्र प्रजापालनमें रत रहेगा। क्षत्रियों का जैसा संस्कार है, जैसा अध्ययन है और जैसा यज्ञकर्म है, तुम्हारे पुत्र का भी यही होगा। अर्थात् चित्रगुप्तके समान ही रहेगा। भने। रानापोंके पास रह कर लेखनकार्यमें ही इसकी उपजीविका होगी। इसके बाद उक्त पुराणमें स्पष्ट ही लिखा है,- "कायस्य एप उत्पन चविष्य पवियालया। रामाचया स दाल्भेन चावधर्मादहिस्क तः ०२॥ ततः पवियस स्वारात वेदमध्यापयन् समिः । ससः स्वधर्मनिष्ठोऽयं गाम्यो मनियोजितः ०३॥ उपनीयतु सचिवगुमश्य यतृष्ण सम् । दामन समिमा तैन सुखिनो गोवशासव 100 मयिष्यन्ति म सन्देही यावचन्द्रदिवाकरी।" कायस्थ ऐसे ही क्षत्रियों द्वारा क्षत्रियाणियोंके गर्भसे उत्पन्न हुए हैं। परशुराम पादेशानुसार वही कायस्थ क्षात्रधर्मसे वहिष्कत होने पर मो दारभय मुनिने उन्हें क्षत्रिय संस्कारों में संस्कृत करके वेद अध्ययन कराया, फिर उन्हों स्वधर्मनिष्ठ कायस्थों- को गाई स्य धर्म बताया। चित्रगुप्तको उपजीविका हो उनकी उपजीविका दुई। दालमामुनिने पापोर्वाद
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४९०
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