SE इस - भारोहण किया। प्रकार यमराजने अपने किसी किसी स्मृति शास्त्रमें चित्रगुप्त भोर कायस्थ सुभटों और बहुतही सेनाको साथ ले कर इन्द्रको नाम पाया जाता है। परन्तु इससे यह नहीं समझा युद्धमें सहायता की। पाथपाणि वरुणदेव भी मत्स्यपर जा सकता कायस्थ कौन जाति हैं। सवार हो अपनी सेनाभोंको साथ ले कर आ पहुंचे। पुराणको-"धर्मराजस्थाधिकारी चित्रगुप्तौ वभव का रस इत्यादि। उक्ति द्वारा यही सिद्ध होता है कि, चित्रगुप्त यमराजके श्रीहर्षक "नेषधचरित में पाया जाता है, लेखक थे। विष्णु, याज्ञवल्क्य, वृहत्पराशर इत्यादि दमयन्तीको स्वयम्बर-सभामें इन्द्रादि देवों के साथ स्पति-शास्त्रोंसे और कायस्थों धर्माधिकरण में भी उनके चित्रगुप्तदेव क्षत्रिय रूपमें आये थे। नैषधकारने उनका लेखक रहनेका प्रमाण मिलता है। प्रौशनस परिचय इस प्रकार दिया है,- धर्मशास्त्र, ब्रह्मवैवर्तपुराण, अग्निपुराण, यान- "गगोधरोऽभूदथ चित्रगुप्तः कायस्थ उचैर्ग व एतदीय । वल्क्यस्मृति और राजसरङ्गिणौमें जगह जगह कन्तु पवस्य मसौद एको मसर्दधचोपरि पवमन्यः ।" (१४ मर्ग) कायस्थों के प्रति कठोर उक्तियाँका प्रयोग पाया जाता चित्रगुप्तके प्रार्थनामन्चमे यह भी मिलता है है। विशेषतः अइल्या-कामधेनु के नवम वत्सोइत "थिया सह समुत्पन्न समुद्र-मथनीय । भविष्यपुराणान्तर्गत कार्तिक शुक्ल द्वितीया-व्रत-कथा- चित्रगुपत महापाही ममाय वरदो मघ ।" सन्दर्भ में कहा है, उपयुक्त भिन्न भिन्न पुराणोंसे यह प्रमाणित होता "एतस्मिन्नेव काले तु धर्मशा हिनोधमः । है कि, ब्रह्माके शरीरसे चित्रगुप्त की उत्पत्ति है; और अपत्यापाँच घावारमाराध्यममजचदा। फिर कल्पभेदसे चन्द्र सूर्यादि देव जिस प्रकार नाना परमधिप्रसादन सम्ध्वा कन्धामिरावतीम् । चित्रगुप्तं च मां दत्वा विवाहमकरोचदा।" भाव और नाना रूपसे अवतीर्ण हुये हैं, वैसे ही चित्र. गुप्त भी विभिन्न कल्पों में कभी सूर्यदेवके पुत्ररूपसे उपर्युक्त प्रमाणसे यहो मालूम होता है कि, चिन- और कभी मित्रके पुत्ररूपसे अवतीर्ण हुए हैं। इन्द्र, गुप्तका विवाह ब्राह्मण धर्मधर्माशी पुत्री इरावतीसे चन्द्र, वायु और वरुण की भांति वह भी देवक्षत्रिय हुपा था। इसलिये प्रतिलोम विवाहसे उत्पन्न रूपसे देव-सैन्यमें रहते थे। हुये कायस्थ कदापि श्रेष्ठवर्ण हो नहीं सकते। विरुद्धधादियों का मत। इसके अतिरिक्ष शब्दकल्पद्रुमोइत प्राचार-निर्णय-तन्त्रमें कहा- उपयुक्त प्रमाणोंके रहते हुये भी विरुधवादा यह "चादी प्रजापतेर्मावा मुखाधिपाः सदारकाः।' इत्यादि उपक्रमसे कहा करते हैं कि, चित्रगुप्तदेव चार वर्णको सृष्ठिके पादाळू दय सम्पतिस्विवर्णस्य च सेवकः । पोछे हुए हैं, इसलिये वे चार वर्णीमें नहीं गिने जा चौममामा सुतस्तस प्रदीपसस्य पुवकः । कायस्थमस पुर्वाऽभूत् बभूव लिपिकारकः । कमलाकरक- धर्य ध्यानस्थितस्यास्स सबकायादिमिर्गतः।" कायस्थस्य वयः पुवाः 'विखाता नगलौती। इत्यादि वचनके अनुसार चित्रगुप्त प्रमाके समस्त विषप्तयिवसेनो विधिवय वर्थव च। शरीरसे उत्पन्न हुए हैं और ब्रह्माकी "ववर्मोचित धर्म चित्रगुप्तो गतः खर्ग विचिदो नागसन्निधो । चिवसन: पबिया वसि शूद्रः प्रचावे। पालनौया यथाविषि-"इस उक्तिसे चित्रगुप्तका क्षत्रिय वसुर्घोषो गुसो मिवी दत्त: करप एव च । होना सिहनहीं होता। "ब्रहकायोडवो यम्मान कायस्थवर्ष मृत्यु अयय सप्ते चित्रसेनसुवा भुवि उच्यते” इस युनिसे कायस्थ एक स्वतन्त्र वर्ण हो इत्यादि.वचनोंसे और अग्निपुराणमें कही गई प्रतीत होते हैं। इसके अतिरित. मन्वादि. धर्मशास्त्रमें चित्रगुप्त जाति-माजासे... चित्रगुप्त और उनके वंशधरोंको अथवा कायस्थ जातिका.तत्व निर्मत नहीं हुवा है। श्रेष्ठ वर्ण नहीं कह सकते। फिर कमलाकरके सकते।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४८५
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