पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४२६

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.. सोनको गाय। कामधेनु ४२७ मध्यपदसोपी कर्मधा। गो विशेष, एक गाय । इस पादुकाइय और धेनुके सम्मुखभाग, मधुरादि छह गायसे इच्छानुसार जो वस्तु मांगते, वही पाते हैं। रस, हरिद्रा, पुप्प पादि विविध पूजा ट्रथ जीरक, अग्निपुराणमें कामधेनुका दान महापुण्य माना धान्यक एवं शर्करा रखते हैं। फिर मङ्गसगीत गया है। दानविधि पर भी इसमें इस प्रकार निखा वाद्य तथा स्तुतिपाठके साथ यज्ञकुण्डके समीपस्थ है, कार्तिक मासको शुक्ल एकादशीको उपवास कर चार कुम्भोके नल हारा यजमानको खान कराया जाता चार दिन तक लक्ष्मौके साथ नारायएको पूजा करना है। मानके पन्तमें यजमान शक्त वस्त्र परिधान कर पड़ती है। फिर पश्चम दिन प्रातःकाल नामकर शक्ल मात्य एवं विविध अन्नद्वारधारणपूर्वक कुशहस्तसे शक्ल वस्त्र, शक्ल मात्य और शुक्ल पनुलेपन धारण करते पुष्याचन्ति ले कामधेनुको प्रदक्षिणपूर्वक पूज गुरुको है। दानको भूमिको मृगके धर्म, तिलके प्रस्थ और प्रदान करता है। परिशेषमें गुरु पुरोहित और वर्ण पादिसे सजा सवसा कामधेनु वहां लायी जाती याचकको दक्षिणा तथा प्रतिथि ब्राह्मणांको अर्थ दे है। धेनुके शृङ्ग और खुर स्वर्णसे मदा समस्त गावमें दानका व्रत समापन करना पड़ता है।' शल वस्त्र लपेट देते हैं। अनन्तर यथाविधि मन्वादिसे ३ वर्गधनु सुरमिको एक दौहिवां धेनु। इसकी गायको पूज नारायणके उद्देश दान होता है।' उत्पत्तिका विवरण इस प्रकार लिखा है,-'गासमूह २ दानके लिये स्वनिर्मित धेनु विशेष, देनेको की प्रादिप्रसूति सुरभि दक्षको कन्या थों। प्रजापति कश्यपके औरससे उनके गर्भमै रोहिणी का जन्म दुवा । दान-सागरमें स्वर्णनिर्मित कामधेनुके दानका रोहिणौने हो तपोनिधि शूरसेन नामक-वसुके पोरससे विधि लिखा है, 'शक्तिक अनुसार तीन पलसे अधिक सर्वलक्षणसम्पन्ना कामधेनुको प्रसव किया था। काम- सहस्रपल तक खणं द्वारा सवत्सा कामधेनु बना रखसे धेनुका वर्ण खेत है। चतुर्वेद चतुष्पदस्वरूप हैं। विभूषित करना चाहिये। सहन पल उत्कष्ट, पांच चारो स्तनों से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष निकला सौ पल मध्यम और ढाई सौ पल सुवर्ण अधम विधि है। करते हैं। शिवके वाइन वृषने कामधेनु के गर्भ से ही अत्यन्त असमर्थक चिये तीन पलसे अधिक सुवर्णका जन्म लिया था। यौवनमें कामधेनु को लावण्यत्री -मी विधान है। तुतापुरुष कथित समयके मध्य अधिकतर बढ़ी। इसीसे कोई कामुक वेतात उनको किसी दिन दानका काल निर्दिष्ट कर उसके पूर्व देख कामातुर हुवा पौर स्वयं कृषकी मूर्ति बना उनके दिन गुरु, पुरोहित, यजमान और जापक चारो लोग साथ भोग किया। इस सङ्गमके फलसे एक विधान हविष्य-भोजनादि कर निवेदन एवं महाल्प कर रखते काय वष निकला था। उसने अपनी तपस्याके बंद हैं। दूसरे दिन यजमानको गोविन्दादिको पाराधना, महादेवका वाइनत्व लाम किया।' मधुपर्कका दान और ब्राह्मणोंको धनुमतिका ग्रहण (कालिकापुराण १..) करना चाहिये। उसी दिन गुरु, पुरोहित और ४ कामधेनुको कुन्नजाता नन्दिनी वा शवला नानी नापकको उपवास करना पड़ता है। उसके परदिन वशिष्ठको एक धेनु । कामधेनुके लिये ही वशिष्ठके पग्निस्थापनादि कार्य समापनपूर्वक पुरोहित प्रधान साथ विश्वामित्रका भयंकर विवाद उठा था। उसी वैदीके मध्यस्थसमें लिखित चक्र पर मृगचर्म एवं गुड़प्रस्थ विवादके फसे विश्वामित्रने क्षत्रिय जाति होते भी यथाक्रम स्थापन कर उसके ऊपर कौपिय वस्त्रद्वारा ब्रह्मर्षि बनने का लिये उद्योग किया। रामायणमें लिखा पाच्छादित. सवत्सा धेनुको खड़ा करते हैं। : धेनुके है,-'किसो समय राना विश्वामित्रने बहु सैन्य एवं पाखंदेशमें पाठ पूर्ण कुम्भ, अष्टादश प्रकार धान्य, अमात्य परिवार प्रभृतिके साथ वशिष्ठ ऋषिके निकट नानाविध. फल, रस, इक्षुदण्ड, कांसपान, पट्टवस्त्र, पातिथ्य ग्रहण किया था। वशिष्ठने कामधेनुसे संवाद नामनिर्मित दोहनपान,. प्रदीपं, प्रातपत्र तथा उत्तमोत्तम प्रचुर ट्रष्यादि ले उनका सत्कार.उठाया।