सम्भवतः इन कामंतापुर ४१६ राजभवन था। किन्तु यह असम्भव है। ऐसे क्षुद्र | पहल और मूलदेश चौकोर है। लोगों के कथमा- स्थानमें गजभवन बन नहीं सकता। सम्भवतः यह नुसार यह स्तम्भका अंश नहीं, नौखाम्बर नामक देवीका उत्सवमञ्च था। नौसकी कोठोके लिये यहांसे नृपतिके प्रयोगोचकका खण्डमात्र है। प्रवादानुसार ईटे संग्रहीत हुयी थीं। वह प्रति सुगठित रहीं। इस दुर्गको विश्वकर्मा पौर नगरके वहिर्देशका मुरचा किन्तु यहां नो ईटें आज भी इधर उधर पडी है, वह नगराधिष्ठात्री कामतखरीदेवीने अपने हाथ बनाया था। भारतवर्षको साधारण ईटोसे कुछ विसक्षण नहीं। पूर्वदिकमें धरलाके तौर कामतेश्वरी-निर्मित मुरचा ढेरको दक्षिण दिक मध्यस्थलसे एक इष्टक-प्राचीर नहीं। कथनानुसार इसके निर्माण समय राजाको दुर्गप्राचीर तक उत्तर-दक्षिण विस्तृत है। इस देवीके पादेशसे एकादिक्रमसे चार दिन उपवास 'प्राचौरकी पूर्व प्रोर कई इष्टकस्तूप हैं। रखना था। किन्तु तीन दिन बीत जाने पर राजा सकस स्थानों में दरवार लगता और सरकारी काम फिर क्षुधा सहन सके और चतुर्थ दिन पाहार करने चलता था। इसो और ढेरके पूर्वगावमें उसीको लगे। उस समय देवीने भी तीन ही पोरका मुरचा बराबर दीर्घ एक दीर्घिका है। कथनानुसार राजा बांधा था। इस लिये चौथी ओरका मुरचा बंध न "इस दौधिकामें कई कुम्भौर पानकर रखते थे। इस सका। धरलाके तौरसे बाघहार तक एक प्रशस्त दीपिकाके उत्तर-पूर्व कोपमें दूसरा क्षुद्र ढेर है । इस पथ है। राजप्रासादके भग्नावशेषसे एक मील दूर ढेरकी चारी ओर दौर्घिकासे एक नहर निकाल धुमा शिङ्गीमारी नदीको वर्तमान खाड़ी है। इसके निकट दी गयी है। इस क्षुद्र देर में भी बहुत ईटें पड़ी है। दूसरी भी क्षुद्र खाड़ी है। उसके ऊपर वाधहारके इससे यहां देवमन्दिर होने का अनुमान करते हैं। सम्मुख कुछ दूर टका मेहरावदार पुल है। इसी कुम्भीर दीर्घिकासे बिलकुल पूर्व दूसरा एक ढेर है। पुल पर होकर उन धरला बाघहारको राह है। योगोंके कथनानुसार इस पर अस्त्रागार था। बड़े वाघहारके निकट एक प्रस्तरमय स्थान है। लोग ढेरके पश्चिम दक्षिण और मध्य प्राचीरके पसिम जो उसे गौरीपट्ट कहते हैं। इसका शिवलिङ्गीय ट खण्ड पड़ता है, वह प्राचौरके पूर्वखण्डकी अपेक्षा छोटा है। वृहदाकार शिवलिङ्ग पर मन्दिर था। पानकल लगता है। सम्भवतः यहां राजाका भवन रहा। उसका विमान मिलता है। निकट हो एक पुष्क- इसीके विलकुल उत्तर अन्तःपुर था। अन्तःपुरके पूर्व रिणी है। वह पूर्वपश्चिम २०० फीट दी और किनारे बड़ा ढेर है। पश्चिम पोर मिट्टीका मुरचा है। उत्तर-दक्षिण २०० फौट विस्तीर्ण है। दोनों ओर दक्षिण और उत्तरमें ईटका प्राचीर है। इसके मध्य दो घाट बने हैं। निकट ही कई उत्कीर्ण मूर्तिविशिष्ट स्थसमें एक स्तूप है। अनुमानमें यह स्तुप पन्तःपुरस्य वृहदाकार प्रस्तर हैं। उनसे एकमें अर्धनागिनीमूति कोई देवालय था। इस स्तूपके निकट दो पुष्करिणी पौर दूसरेमें वैष्णव-वैष्णवी मूर्ति खुदो है।' हैं। सम्भवतः यही दोनों स्त्रियों के व्यवहारार्थ पत्थरसे प्रासामको बुरुजी पढ़नेसे समझते हैं कि ई. चंधी थीं। बड़े ढेरके दक्षिण-पश्चिम कोणको पुष्क शताब्दके प्रथम भाग कामरूपमें नीलध्वज नामक एक रिणोके तौर पर दूसरे मन्दिरका भग्नावशेष है। अन्तः राजा थे। उनके सम्बन्धमें कई प्रवाद हैं-बगुड़ा पुरके निकट इन दोनों पुष्करिणियोंमें और पूर्वोक्त मिलेवाले ब्राह्मणके एक गोरचक रहा। वह गोरक्षक बड़े ढेर पर (निस स्थानमें कामतेश्वरीके मन्दिर बड़ा दुष्ट था, दूसरेका अमिष्ट करना उसे पच्छो रहनेका अनुमान किया गया था, वहां भी) प्रस्त लगता था। प्रतिदिन दूसरेके क्षेत्रमें गो प्रादि छोड़ रादिके भन्नखण्ड मिलते हैं। यहांफोट सम्बा वह स्वयं सोया करता था। प्रत्यक्ष शस्यको ऐसी हानि १८ इस व्यासविशिष्ट धूसरवर्गके पानाइट पत्थरके देख सबने अपसे उसके भृत्य के दुर्व्यवहारको बात स्तम्भका एक पख पड़ा है। इसका प्रभाग पठ कही। ब्राप्रपने एक दिन स्वयं उन विषयका गया 1 १४
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४१८
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