- काफी सहायक है। काफौकी क्षषिमें बड़ा. यन करना पुस्तकमें मिसरियोंके बुन फवका काय खानेको बात पड़ता है। अतिशय मेध चढ़ना वा प्रतिवेगसे वायु देखते हैं। इससे अनुमान होता है कि भारतवर्ष में चलना, इसके लिए अशुभ है। जोरसे हवा चलने पाते समय लिनसोटेनने काफीको बात नहीं पर काफीके फूल झड़ जाते हैं और फल नहीं लगते, | सुनो। डाकर पोयातिचने विलायतमें "हाउम- सुतरां कषक प्रायः पाधे शस्यको क्षति उठाता अवकामम"के समक्ष साच्य देते समय कहा था अत्यन्त ग्रीम होनेसे वृषके लिये छाया आवश्यक है। -"कलकत्तेके कम्पनी. वागमें जो काफी होती समुद्रके संपकूलमें काफी अच्छी नहीं होती। है, उसको छोड़ इमने दूसरी..कोई काफी नहीं अफरीका अन्तर्गत वसीमियाके साथ समसूत्रपातसे उसके पौके मिलनेवाला विवरण भी भारतमें पड़नेवाले स्थानोमें यह भली भांति उपजती) १८वौं शताब्दीका विवरण है। सिंहलम पोर्तगोजाँके है। विशेषतः नीलगिरि उपत्यकामें काफी की उत्पत्ति दौरात्मासे पहले अरवनि इसे प्रथम प्रचार किया था। पूर्व भारतीय होपयग्यो१६९० ई. के पन्तमें पबसौनियामें इसके फलको "बुन" कहते हैं। गवर्णर वान हुरनने ( Van Hoorne ) परब प्राचीनकालमें मिसर और सिरीयामें यह नाम प्रचलित वपिकोंसे बीज संग्रह कर यवनोपके क्टेविया नगर में था। उस समय सिरीयाके रहनेवाले इस वीजको लगाये थे। इनसे जो पेड़ उगे उनका एक पौदा केवे (Cave) कहते थे और पका कर खाते थे। अरबी) इङ्गलैड पहुंचाया गया। फिर इङ्गलैंडके वृक्षोंका ग्रन्यादिको पालोचनाके अनुसार शेण शहाबुद्दीन एक पौदा १७१८० को सुरिनाम नामक स्थान में पाया धमानी नामक किसी व्यक्तिने अफरीकाके उपकूलमें था। इसके दश वर्ष पोछे अमष्टरडमके काफीबागसे एक काफीका व्यापार देख कर सर्व प्रथम मदनबन्दर में एक पौटा १४वें लुईको पढौकन दिया गया, फिर उसका दुकान खोली थी। १४७० ई०को वह मर गये। सुतरां पौदा पश्चिम भारतीय दोपपुञ्जमे रोपित हुआ। १५वीं शताब्दीके मध्यभागमें काफी परवमै पहिले आई। इसमे नतम महाहीपमें काफोकी खेती फैश पड़ी। १५७१ ई०को यह यमन, मका, कायरो, दामास्कस, अमेरिका और यूरोपको काफी कृषिका मूल यवद्वीप अलेपो और कुनस्तुनियामें फैली थी। १५५४ ई.को है। किन्तु आजकल अमेरिकाको भांति पृथिवीके दूसरे कुनस्तुनतनियामें सर्वप्रथम काफीका एक पानागार स्थानमें कहीं काफी नहीं उपजती। अकेले ब्रेनिलम स्थापित इमा। १५७३ ई०को पलेपो शहरमें रनडल्फ ही पांच करोड़ तीन चाख पौदोसे यन के साथ फल नामक किसी युरोपीयनने इसका प्रथम परिचय पायां । संग्रह किया जाता है। फिर कोष्टारिका, गोयाटिमाचा, फिर का नहीं सकते कि भारतमें काफी कैसे प्रायो। वेनजुइना, गोयाना, पेरू, बनिविया, जाम का, किउवा, अनेकोंके कथनानुसार बाबा बूदन नामक एक मुसल. पोटारिका, अन्यान्य पश्चिम भारतीय होप, अष्ट्रेलियाके मान सन्यासी मकेसे लौटते समय ७ वीज लेकर महिसर मध्य क्विन्सलेण्ड, पूर्वमारतीय दीपावली के मध्य पहुंचे थे। दक्षिण भारतमें उता मतपर बड़ा विश्वास सुमात्रा, बोरनियो, मजयउपदोप, श्यामदेग, सिंगा- करते हैं। इसीसे उसका समस्त प्रमूलक होना ध्यानमें पुर प्रति प्रणाली मध्यगत दोपविभाग और फिजी नहीं पाता। १५७६ से १५००० तक लिनसोटेन होपमें इसकी खेती होती है। वेजिल और यदीपकी (Jan Huygen van Linschoten ) A Thi भांति प्रावाद जमीन दूसरी जगह नहीं। उसके पीछे श्रीसन्दाज इस देशमें घूमनेको पाये थे। वह अपने भारतवर्ष और सिलदीपको प्राबाद नमोन्. उल्लेख योग्य है। भमत्तान्तमें मसवार पकूलके समस्त उत्पन्न द्रव्योंकी वर्षमा कर गये हैं। किन्तु उसमें काफीका पाद देश में इस प्रथाके फैलने से मुसलमान धर्म- नाम नहीं मिलता। उनी समसामयिक लेखकोंके याजक काफीपानके विरूह उठे थे। कारण मसजिद और. 1
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