कात्यायन ३९१ अथवा वातिकके प्रभाव, अनेक चोग उसे समझ पहले ही लिख चुके है-एक ऐसा समय पाया न सकते थे। सुतरां उमहाग्रन्यके लुप्त होनेका था, जब पाणिनिका वाकरण साधारण लोगोंने समझ उपक्रम लगा। कात्यायनने उक लुप्तरत्रको उहार म पाया था। पार्षसूत्र लुप्त होनेका उपक्रम मा पहुंचा करनेके लिये प्रथेष परिश्चम, पसाधारण पाण्डित्य था। पाणिनिक अनेक सूत्रों में पार्षपति और पार्ष और अभिज्ञताके प्रभावसे अपना वातिकपाठ प्रणयन शब्द पड़े, जिन्हें कात्यायनके समय बागाने अप्रचलित किया था। महाभाष्यमें पसनलिने भी लिखा है,- भिनार्थ अथवा शब्द शास्त्रको रीतिके विरुद्ध समझा। "पुराकक्ष एवदासीत्। संस्कारोशरकावं वाणा व्याकरणं याधीयते उसी समय कात्यायनने साधारण लोगोंको समझानिक तैमास्तचत् स्थानवारणनादानप्रदान भयो वैदिक्षाः शब्दा उपदिश्यन्ने लिये आवश्यक विवेचना कर पाणिनिसूत्रका वार्तिक सदाने न बघा. बनाया। कात्यायनने अपने वाति कके प्रारम्भमें हो वैदमधीव्य त्वरिता व रो भवन्ति। बैदाना वैदिकाः शब्दाः सिद्धा लिखा है,- खोकाच लौकिका अनर्थकं व्याकरणमिति। तेभ्य एवं विप्रतिपन्नविभयो "सिद्ध शब्दार्थसम्बन्ध। दोको ऽयं मयुके थानेण धमनियमो यया ऽध्येवमाः सुधत् मूला पाचार्य दर्द शास्त्रमन्वाचष्टे। मानि प्रयोजनान्यध्येय लौकिकवैदिकेष । समानावामावगती देन चापशष्देन गन्दनवार्यो व्याकरणमिति।" (महामाष्य १११ पानिक) मिधे य रवि नियमः । तव ज्ञानपूर्वक प्रयोग धर्मः । न चेदानीमाचार्या अर्थात् पहिले उपनयन होनेके पीछे ब्राह्मण सूवापि छत्वा निवर्तयन्ति इनिसमवायार्थों ऽनुवन्धकरणार्थ य वर्षानामुपदेशः। वेद पढ़ते थे। वह उसके अनुसार स्वरप्रक्रिया चौर भाव प्रतिफलको वर्णानां का निवेमो अत्तिसमवायः। वैदिक शब्दका उपदेश लाभ करते थे। किन्तु पाज शव्दके साथ शब्दगत अर्थका सम्बन्ध चोकमें कल वैसा नहीं होता। चोग वेद पढ़ कर ही बल्ला प्रसिद्ध है। इस बोकमसिद्ध अर्थ का प्रयोग होते भी बन बैठते और कहते कि वेदसे वैदिक शब्द तथा शास्त्र द्वारा शब्दके वेदविहित धर्मके नियमानुसार लौकिक व्यवहारसे लौकिक शब्दनिकलते हैं, अर्थ निीत होता है। शब्द और अपशब्द उभय जिससे वयाकरण पाठ आवश्यक नहीं समझते। हारा समान प्रर्थ हो समझ पड़ता है। फिर भी ऐसा प्राचार्य कात्यायनने इन्हीं सकल विप्रतिपत्रबुद्धि नियम है कि शब्द हारा अर्थ प्रकाश करना चाहिये। अध्ययनकारियांक वन्धु हो व्याकरण सिखाने के लिये ज्ञानपूर्वक शब्दप्रयोग करनेसे धर्म हाता नाना प्रयोजनों को बतलाते हुये (पाणिनिके अनुवर्ती . पाणिनि प्रभृति प्राचार्य ने सूत्रको बना निर्मित नहीं बन) अपना वातिक शास्त्र प्रकाश किया था। किया। (अर्थात पाचार्यों ने ज्ञानको प्रभाव अथवा किसी किसी लेखकके मतानुसार कात्यायनने योगके बल जी.सूत्र उद्भावन किये, वह ईश्वरादिष्ट विशेष भावसे पाणिनिको समालोचना और पाणिनिका वेदवाक्यको भौति पनयंक नहीं। सुतर साधारण -दोष दिखानके लिये ही वातिककी रचना की है। लोगों को समझ न पानेसे उन्हें चान्त कैसे कह किन्तु समनौं वार्तिक और महाभाथ पढ़नेवाले सकते हैं।) कहा करते हैं-कात्यायन पाणिनिके उद्वारकर्ता उन्सिसमवाय और अनुबन्धकरपके लिये वर्णका थे। वास्तविक, नागाजीमहने “वार्तिक" शब्दको उपदेश दिया गया है। शास्त्र में प्रन्तिके निमित्त विकृतिमें लिखा है,- एकके पोछ दूसरी वर्णयोजनाको पत्तिसमवाय “वाविवमिति। सूखे ऽनुजदुरचिन्ताकरत्न' वार्तिकबम्।। कहते है। वातिक वही है, जिसमें सकल अनुव.पौर दुरुता कात्यायनका वार्तिक पढ़नेसे समझ सकते है, 'विषय पायोचित हो। पाणिनिक सूत्र में भी बात नहीं (२) उन्होंने पधिकांश स्थानों में पापिनिस्त्र अनुवों कही अथवा जो बात पस्पष्ट भावसे उन इयो और बन यथाविधि प्रर्थप्रकाश किया है। (२) किसौ किसी समझ न पड़ो, उसे ही बोधगम्य बनाना वार्तिकका स्थल पर नामा तर्कवितर्क और समालोचना निकाल काम। पाणिनिभूत्रक संरचयमें यथेष्ट चेष्टा की है। () विनो 1
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३७०
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