पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५९

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- कात्यायन नामक यज्ञ विधि है। पुत्रार्थों और परमार्था वालिका है। बयोदय .भसिरानका विधान है। यथा--

इसमें अधिकार है। गोकुल दक्षिया है। उसमें दो घोड़शिग्रहरहित चार प्रथम पतिरान हैं। उनके

धाता वा दो सखाका अधिकार है, समूहका मध्य प्रजातिकामका नव सपदय नामक प्रथम अधिकार नहीं। रानकर्तवा उक्थ्यसंस्य इन्द्रस्तोमका प्रतिरात्र है। ज्येष्ठ माढविषिष्टा स्त्रीके ज्येष्ठ पुत्रका विधान है। पुरोहित प्रार्थीका इन्द्राम्नोस्तोम नामक कर्तवा विषुवत् नामक हितोय अतिरात्र है। जिसके यविधि है। सायुज्य अमिलापी राजा और चाटा रहता, उसका गो नामक कृतीय अतिराक पुरीहितका इसमें अधिकार है। उभयका एकत्र वा है। खगकाम वा पारोग्यकाम वालिका प्रायः पृथक भावसे पधिकार है। ऐसे अधिकारका भेद नामक चतुर्थ प्रतिरात्र है। धनामिनापीका ज्योति-- विधि है। पशुकाम वाति अग्निष्टोमसंस्थ विज्ञान टोम नामक पश्चम पतिरान है। पशुकामका नामक यजयका विधान है। इसमें अभिचारकाम विजित् नामक षठ प्रतिराव है। ब्रह्मतेजा- वा पशुकामका अधिकार है। पशुकाम वालिका प्रार्थीका विद्वत् नामक सप्तम पतिराव है। वीर्यकाम वस तथा दुग्धयुक्त पत् गो पौर अभिचार कामका वालिका पञ्चदश नामक अष्टम अतिराव है। अनादि. तोस गो दचिणाविधि है। पभिचारकामके संदश अभिलाषी वाक्तिका सप्तदय नामक नवम असिरान और वक्ष नामक दो यीका विधान है। इन्दसोम है। प्रतिष्ठाकाम वाक्तिका एकविंश नामक दशम भाव उभय यज्ञोंको कर्तवाता है। उभयके मध्य अतिराव है। प्राप्तपशुका ध्वंश होनेसे पुनर्वार वचका पोशिसंस्थ रूपभेद-कथन है। संदश उसकी प्राप्तिके लिये प्राप्तोर्याम नामक एकादयः द्वारा राजाका अभिचार करना चाहिये, देशका नहीं पतिरान है। चाटवावान्का अभिजित् नामक' और वन द्वारा देशका अभिचार करना चाहिये, हादध प्रतिशत है। ऐखयंप्रार्थीका सर्वस्तोम नामक राजाका नहीं। स रूपसे विधान कधित है। वयोदय अतिरान है। इसी प्रकार प्रयोदय प्रकार. मतान्तरमें उभयका विपरीत भावसे विधान है। अतिरानका विषय कहा। अभिचार द्वारा राजादिका उपशम वा मारण सम्पादन २य कण्डिकामें दो सुतीके तीन प्रहीनका विधि कर ज्योतिष्टोम यजदारा बामशक्षिका विधान है। है। उनके मध्य द्वितीय और ढतीय महोगके. इसी प्रकार सामवेदविहित एकाई निर्टिष्ट है। षोड़ शिग्रहरहित दो प्रतिराव है। तीन महीनके २३ अध्यायमें ५ कडिका है। उसको इस प्राङ्किरस, चैत्ररथ और कापिवन तीन नाम कहे हैं। कण्डिका महीन नामक यन्नसमूहका हादश द्वितीय दिरात्रिके उक्थ्य पूर्व सारूप अन्य का मतभेद उपसद एवं एकमासमें उसका समापनविधि है। है। पाष्टिक अग्निष्टोमके स्थानमें उक्थ्य निर्देश है। सूत्योपसटुका विशेष उपदेश है। दोशाके भेदका संस्थभेदमान ही उसका धर्म है। पूखयोग्य होते भी विधि है। यथा सौत्यदिन और उपसदसमूहके दिन जो पुण्य हीनको मांति रहता, उसोका आङ्गिरसमें । गिन दीक्षा नियम है। दो राविसे वादा दिन पर्यन्त अधिकार है। पुत्रायौँ, वशक्ति का चैत्ररथमें अधिकार है। स्वर्गकाम वा पशुकाम वाक्तिका कापिवन में सम्पादन योग्य याग अहीन कहता है। अन्धके मतमें पाठ हैत अतिरानको भी बहीनसंधता है। महादिम अधिकार है। त्रिमुतीके गर्ग, वेद, छन्दोम, अन्तर्वस दशरोबादिको प्रवृत्तिको गौख्या कहते हैं। हादश और पराक नामक पांच महीन यनोंका विधान है। उनके मध्य वैद विरात्रिसाध्य एवं विद्यतस्तोमयुक्त दिन कर्तवा दवरात्रको बहादिम कर्तवाता है। दिरात्रि प्रभूतिमें सघन दक्षिया है। चार रात्रि या संस्थभेदका कथन है। इस समुदायमें राज्य प्रतिमें अधिक दक्षिणादान पर प्रत्यह समभागसे कामका अधिकार है। फिर पन्त ममें पएकामका. दानविधि है। परिशेषको अवशिष्ट समुदायका दान इस पक्षभेद अपर समुदाय अतिगवसाध्य है।