कात्यायन ३५६ मंत्रादिका विषय कथित है। म.कण्डिकामें पशु- ५म कण्डिकामें अग्निष्टुत्के द्रवा, देवता और मंत्रविधामादिका वर्णन है। त्रिहत्स्तोम नामक काम और वैश्यकामका वैश्यस्तोम है। उसका अग्निष्टोमसंस्थके चतुर्विध यजका विधान है। उनके विधानादि है। उक्थ्य संस्थ तीव्रमुत् नामक यज्ञ है। मध्य पनि प्रात:सवन प्रथम है। उसका नाम तोवसुत में सोमका पतिदेश रहते भी विशेष विधान उपम यज्ञ है। स्वर्णादि अभिलाषी किंवा प्रामादि है। उसमें सोमाभिपूत स्वराज्यभ्रष्ट राजाका एवं अभिलाषीका उसमें अधिकार है। उसके द्वा, देवता दीर्घकाधिशान्ति, ग्राम, प्रना और पशुकामना- और मंत्रका विधानादि है। बृहस्पतिसबत द्वितीय कारीका अधिकार है तथा उसका विधानादि कथित राजाके साथ ब्राप्रपका (धर्मस्थापक रूपसे है। १०म कण्डिकामें राज्यप्रार्थी क्षत्रियका रार नामक 'भङ्गीकार किये जानेवाले बाबणका) उसमें अधिकार यज है। उसका विधानादि कहा है। उता यन्त्रको है। हतीयका नाम इधु है। यह श्येनकी भांति अग्निष्टोमसंस्थता है। ऋषभकी भांति ऐन्द्रपरियनकी ‘किया जाता है। किन्तु भेद इतना ही है कि यह कतवाता है। अनादि प्राथौं वाक्ति का विराट् नामक सद्य अनुष्ठेय नहीं होता। मानकामनासे इसका यन्न है। ऐन्द्रपरियज्ञकी भांति पाद्यन्तमें पाग्नेय अनुष्ठान करना पड़ता है। पशसंयुक्त कर इसको भी क वाता है। पुत्रार्थीका ६ष्ठ करिडका सर्वखार नामक चतुर्थ एकाह उपसद नामक एकाह है। उसका विधानादि कहा यन्न है। जीवनाभिलाषी पौर मृत्युकाम नाकारी है। उक्थ्यसंस्थ पुनस्तोम नामक एकाह है। उसमें उभयका इसमें अधिकार है। सिहान इसकी दक्षिणा प्रतिग्रह दोषशान्ति प्रार्थीका अधिकार है। उसका है। इस यज्ञके द्रवा, देवता पौर मंत्रका विधानादि दक्षिणादि है। पशुकाम वालिका चतुष्टोम नामक है। ऋत्विक अपोहनीय नामक विविध यज्ञका पौर एशिदबत्तमिद नामक एकाइहय है। दर्श- 'विधान है। इनमें प्रथमका नाम सर्वस्तोम है। पौर्णमासकी भांति मिलिस उभयको फलसाधकता है। हादशाहिक छन्दोमवयक • मध्य उक्थ्यसंस्थ उत्तम यज्ञ और उसका विधानादि है। उद्भिदयजके दिन इय पृथक् कर द्वितीय और तीय ऋत्विक पछि उसी दिनसे अर्धमास, एक मास पथवा संवत्सर “अपोहनीय सम्पादन करना पड़ता है। वाचस्तोम पर्यन्त प्रत्यक्ष इषु यत्रका पनुष्ठानविधि है। उसका 'चतुर्विध है। शन्दोग्यमें इनका विशेष विधि लिखा विधानादि है । पूजाभिलाषो वालिक प्रपचिसि नामक है। परिशेषको विकृत, पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, दो यन्नौका विधान है। उनमें राजा वा विजातिका विनव और वयस्त्रिंश नामक छह एकाह पृष्टयस्तोम पधिकार है। उनका विधानादि है। उभय यमके मध्य विशयका विधान कषित। प्रथम यनका नाम पचोति और वितीय याका नाम ७म करिखकामें उनके विधानप्रकार, मंत्र, देवता ज्योति: है। यह उभय यज्ञ भी सर्वजितकी भांति 'प्रभृतिका कथन है। अग्नाधेिय, पुनराधेय, पग्नि- दीक्षायुक्त है। इनका दक्षिणादि विधि है। ऋषभ होम, दर्शपौर्णमास, दाक्षायय और अपयप नामक और गोषव नामक दो याका विधान है। उनके प्रतिकर्ममें सोमयुक्त छह यज्ञ और उनका विधानादि मध्य अग्निष्टोमसंस्थ ऋषभमें राजाका अधिकार है कथित है। म कडिका सप्तदशस्तोमक पांच और उसका दक्षिणाभेद विधि है। उक्थ्यसंस्थ यजका विधान है। उनमें ग्रामाभिलाषी वालिका गोषव में प्रयुत गो दक्षिणा और वैश्य वा अन्य नातिका उपहवा नामक भनिखित यज्ञविधान और मिथ्याभिश। उसमें अधिकार है। उसका विधानादि है। मरुतस्तोम वालिका भी इस यन्नमें अधिकारविधि है। उसको नामक यज्ञविधि है। उसमें एकत्रित मानसमूह और दक्षिणाका विधानादि है। दुर्गाभिलाषी वाशिका वन्धुसमूहका अधिकार है। वैश्यस्तोम निर्दिष्ट दक्षिणा- ऋसपेय एवं उसका विधान प्रकार और देवता तथा का ही उसके दक्षिणारूपसे निर्देश है। ऐन्द्राग्नकुन्जायं
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।